जिस घर को खूबसूरत बनाने के लिए हम अपना तन मन सब लगा देते हैं क्या वह घर अपना होता है? वह घर कभी-कभी पराया सा महसूस लगता है।कलमकार स्वाति बर्नवाल की कविता भी अपने उसी घर की दास्तान बता रही हैं।
चौराहें पे जो वो लड़की
रोज़ धूल, मिट्टी से अपना घरौंदा
वाला घर बना रही है,
घास फूस से सब्जियां बना रही हैं
कहती है ससुराल जाऊंगी तो ऐसे
ही बनाऊंगी।
आते जाते लोग पूछते है
क्या मुझे भी खिलाओगी
बोलती हैं पहले सीखने तो दो,
खून पसीने बहाकर बनाती हैं,
अपना घर, खुद का घर
जहां वो किसी की बंदिशों में नहीं
जी रही होती हैं,
वो किसी की प्रार्थनाओं में नहीं जी रही होती हैं,
खुश है खुद की बनाई घरौंदे से
जो उसके लिए उसका अपना घर है,
फ़िर आते हैं कुछ लंपट लड़के
और मिट्टी का घरौंदा मिट्टी में मिला देते है,
सच तो ये है कि आज तक
लड़कियां खुद का घर
अपना घर आज तक
अकेले बना नहीं पाई है।~ स्वाति बर्नवाल
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