अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाने की शुरुआत 1999 में की गई थी। आप भी अपने भाई, पिता, पुत्र, दोस्त व सहकर्मी को विशेष होने का एहसास जरूर कराएं। अन्तरराष्ट्रीय पुरूष दिवस (19 नवंबर) पर कुछ विशेष रचनाएँ पढ़ें।
International Men’s Day 2020
Theme: “Better Health for Men and Boys“
मासूम लड़के
कभी देखा है क्या बच्चे सा बिलखते उनको
जो दिखाते है फौलादी ज़िगर सबको,
कभी सुना है उनकी वो कभी ना खत्म होने वाली बातें
जिसे वो नहीं कह पाते हर किसी से,
कभी समझा है क्या क्यूं हर वक्त गुस्सा हैं वो दिखाते
इक मासूम लड़के को हैं वो खुद में छुपाते,
कभी देखा है इश्क में चोट खाऐ लड़के
छुप छुप कर सबसे हैं वो रोते बिलखते,
कभी पूछा है हाल उनका जो जिम्मेदारियां है ढोते
अपने यार दोस्तों से भी नहीं मिल पाते,
कभी देखा है मां के आंचल में पलते हैं वो मोती जैसे
भूल खुद को हर आंधी तूफान से हैं वो लड़ते,
प्यार में वो मर मिटने को होते हैं तैयार
पर माँ-पिता के खातिर इक अजनबी को हैं चुनते,
जिन्दगी भर तड़पते हैं बेग़ानेपन में
पर वो पहला प्यार भुला नहीं पाते,
बड़े खुदगर्ज होते हैं ये लड़के
जीते हैं सबकी ख़ातिर बस खुद के लिए नहीं जी पाते,
रखते हैं खुश सबको
बस खुश हो नहीं पाते।
पुरुष होना
पुरुष होना आसान नहीं
वो भी कोई सामान नहीं
दबा कर अपनी ख्वाहिशें
पूरी करते हैं हर फरमाइशें
बचा कर अपना स्वाभिमान
करना है उन्हें सबका सम्मान
उठा कर ज़िम्मेदारियों का बोझ
किरणों के संग जगा करते हैं रोज
सहज कहां है उनका भी इंसान होना
चाहे दिल भर जाए पर उन्हें नहीं है रोना
वो लड़का है
हाँ, वो लड़का है तो क्या हुआ
हर बार मुज़रिम वही है ये कहा का न्याय हुआ
गुनाह कुछ भी हो गुनाहगार वही है,
ना सबूत देखो ना गवाह बस बोल दो मुलज़िम वही है
हाँ, इस समाज मे रावण बहुत है,
द्रोपदी का चीर हरने को तैयार दु:शासन बहुत है
पर इसी समाज ने पुरषोत्तम राम भी देखे है,
लाज बचाने वाले वो घनश्याम भी देखे है
फिर क्यू तुलनायें बस रावण से करते हो,
हैं कुछ लड़के भी मर्यादित
क्यों नही उनकी तुलना राम से करते हो
अदब नही होती लड़को में अंदाज गलत होता है,
किरदार सही नही उनका हर काम गलत होता है
ये जानने को आजमाइश क्या हर लड़के की हुई थी,
या कुछ को देखा और लड़का गलत होता है
एक ही तराजू में सबको तौलना ये इंसाफ़ नही लगता,
सही को सही मानो, गर है गलत तो गिरेबान साफ नही लगता
तक़लीफ़ उन्हें भी होती है, गला उनका भी रुन्धता है
आंखों में इज़्ज़त उनके और
सीने में उनके भी एक मासूम सा दिल होता है।।
पुरूष
पड़ी हैं बेड़ियां गृहस्थ जीवन की
मन आज भी चंचलता की और दौड़ता हैं
उड़ती पतंग देख आज भी बालपन याद आता हैं
हल्की सी डांट में मन उसका भी रोने का बहुत करता हैं
देख पिता को आज भी
माँ के आँचल में छिपने का मन
करता हैं
दुख में वह स्वयं को पाषाण बना
नमकीन पानी सुखा कर
मर्द होना जगजाहिर करता हैं
हदय की सौम्यता को कठोरता बना
खुद को पुरूष कहला कर
प्रेम के कपाट बन्द कर
वह स्वयं में जी लेता हैं
रिश्तों के ताने-बानो को सुलझा
खुद में उलझ जाता हैं
नहीं हँस पाता खुल कर कभी
रोने का हक नहीं उसको
पुरूष हो तुम बोल समाज
हर दर्द को बेदर्द कर देता हैं।
ये पुरूष है ही है, जो संकट में धीर गम्भीर बन उभरते हैं।
पुरूष
रचना की प्रकृति में सख़्त बताया जाता है,
व्यवहार में अक्सर शुष्क पाया जाता है,
मुस्कुराता हर दम दिक्कतों के बीच भी
यही वो प्राणी है, जो पुरुष कहलाया जाता है।
पिता,पुत्र,पति सबके इसके रूप हैं,
कभी न बिलखते, ये गहरे कूप हैं,
कभी राहती छाया,कभी शीत की धूप हैं,
बचपन से मजबूत जिसको बनाया जाता है
मुस्कुराता हर दम दिक्कतों के बीच भी
यही वो प्राणी है, जो पुरुष कहलाया जाता है।
जिम्मेदार इनको खुद बनना होता है,
परिवार का बोझ अनकहा इन पर होता है,
सुरक्षा सबकी ये सुनिश्चित करता है,
इसके बिना अधूरा परिवार पाया जाता है
मुस्कुराता हर दम दिक्कतों के बीच भी
यही वो प्राणी है, जो पुरुष कहलाया जाता है।
बहन के लिये परिवार से लड़ता है,
माँ की चिन्ता मस्तिष्क में लिये फिरता है,
पत्नी की हर इच्छा पूरी करता है,
अरमानों की गठरी लिये,परदेश में पाया जाता है
मुस्कुराता हर दम दिक्कतों के बीच भी
यही वो प्राणी है, जो पुरुष कहलाया जाता है।
पुरूष को समझना इतना भी मुश्किल नहीं है,
आवरण कठोर से लगते,कठोर दिल नहीं है,
गमों को छिपाने में इनसे कोई काबिल नहीं है,
चोट लगने पर भी जिसको हँसाया जाता है
मुस्कुराता हर दम दिक्कतों के बीच भी
यही वो प्राणी है, जो पुरुष कहलाया जाता है।
इनकी परिभाषा न सही, चंद शब्द ही समझो,
व्याकुलता को इनकी, यूँ ही मंद-मंद समझो,
जरूरतों के संसार में, इनको भी जरुरतमंद समझो,
सबकुछ बोल के भी नहीं समझाया जाता है
मुस्कुराता हर दम दिक्कतों के बीच भी
यही वो प्राणी है, जो पुरुष कहलाया जाता है।
मैं पुरूष
मैं पुरूष..!
पता चला..
आज विश्व पुरूष दिवस है
सोचा कुछ लिखूँ..
स्वयं पर एक पुरूष पर
लेकिन क्या कुछ समझ नहीं आता
नारी के व्यक्तित्व के आगे
इतना छोटा पड़ जाता हूँ
कि खो सा जाता हूँ कहीं..
मैं पुरूष….
जाने कब पा सकूंगा स्वयं को..
वैसे भी स्वयं का पा लेना
अर्थात ईश्वर को पा लेना है
और ईश्वर को पाना
इतना आसान नहीं
फिर एक तो हूँ नहीं मैं..
खण्डों में बँटा हूँँ…
और मेरे हर खण्ड की
अपनी अलग दास्तां है
अपनी अलग पहचान है…
अलग वजूद है अलग निशान है
देता हूँ बली खुद की
कर्तव्यों की हिमशिला पर
करता हूँ आत्मदाह
रिश्तों के बेदी पर हरबार
जबकि अरमान भी कितने होते हैं स्वयं के
लेकिन उनपर परत बनकर
जिम्मेदारियों की थकान बैठी रहती है
मैं पुरूष..
खुद में सिमटा
ख़ुद में फैला रहता हूँ हरपल
जीता हूँ जीवन साथ कई
पर उफ्फ तक नहीं करता हूँ..
कभी एक माँ के लिए
बेटा बन जाता हूँ
तो एक पिता की लाठी…
बहन का भाई तो पत्नी का पति..
बेटी की ख़ुशियाँ तो बेटे का अरमान
हर घड़ी हर समय हर हाल में
जी तो सबके लिए लेता हूँ….
पर स्वयं को जीत नहीं पाता कभी…
टूटता हूँ बिखरता हूँ..
फिर स्वयं को स्वयं में समेट लेता हूँ..
मैं पुरूष..
रोता हूँ हँसता हूँ आहें भरता हूँ
चाहता हूँ कई बार पिघलना
लेकिन जाने क्यूँ पत्थर हो जाता हूँ
मानों हर संवेदनाएँ
स्वयं के लिए मर गयी हो जैसे
इसलिए हरबार आलोचनाएँ सहकर भी
भावनाएँ व्यक्त नहीं कर पाता हूँ..
मौन रह जाता हूँ
पर सच कहूँ तो मेरा मौन
मुझम़ें ही चीखता रहता है हरपल
करता है मुझसे ही सवाल कई..
पूछता है मुझसे आखिर कबतक
करता रहूँगा प्रायश्चित मैं
स्वयं के पुरूष होने का..!!
सोचता हूँ तन्हा कई बार
जाने कब पा सकूंगा स्वयं को..
या सच म़े करता रहूँगा
प्रायश्चित ताउम्र और
सहता रहूँगा दंष जीवन भर
स्वयं ही पुरूष होने का..!!
स्वयं के पुरूष होने का..!!
पुरूष
हर तरफ होता
नारी का गुणगान
पुरूषों पर नहीं
जाता किसी का ध्यान
नारी गर महान है
तो पुरुष होना
भी कहां आसान हैं।
दिन हो या रात
सर्दी हो या बरसात
जी तोड मेहनत करता है
कभी आलस नहीं करता है
ताकि परिवार उसका
सुख से रह सके
पूरी करता सबकी फरमाइशे
अधुरी रह जाती
उसकी खुद की ख्वाहिशे
उपर से दिखता सख्त है
खुशियों देने को बच्चों को
रहता मुस्तैद हर वक्त है।
उसे भी दर्द होता है
उसका दिल भी रोता है
जब उसका अपना कोई
तकलीफ में होता है।
लेकिन वो तो रो भी नहीं सकता
वो जानता हे गर वो रोया
तो सब बिखर जायेगा
उसके अपने टूट जायेगे
इसलिए बाहर से वो रहता कठोर
अंदर उठता है भावनाओ का शोर।