OCTOBER-2020: 1) द्रौपदी: नायिका बनी कलंक भरी कहानी की ~ अर्चना शर्मा • 2) गृहणियां ~ मधु शुभम पांडे • 3) होते हुए देखा है ~ कलमकार- अजीत लेखवार जौनपुरी
१) द्रौपदी: नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
आज हृदय के झरते रक्त से
पवित्र हिमायल के पत्थरो पर
लिखती हूं में अपनी जुबानी
कैसी अद्धभुत है मेरी कहानी
जन्म मेरा तो व्यतिक्रम है
यहि काल का नित्य क्रम है
यज्ञ देवी की पुत्री यज्ञ सेनी हूं
शुरू हो गए कष्ट यज्ञ कुंड की अग्नि से
व्यथा द्रौपदी की सुन जन हृदय धिक्कार रहा था
क्योकि नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
सागर की लहरों से केश
नील पदम सी उज्जवल बुध्दि
मनमोहक आयत से आंखें
चपकली कली से अंगुलियों
शरदल सा करतलपाल
मुक्तावलि सी दंतपंक्ति
शुभ्र कुत्मंडित स्वेत कमल धारण
पूर्णयोवान से अंग भरा मेरा वरण फिर भी
नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
घिरा प्रेम की अंगद कलियो में विधान विदूषी
ज्ञान पिपासु दक्ष शास्त्रों में सुज्ञान थी कविषि
संगीतगणित पाक कला की रागिनी
चित्राकंन नूपुर तेजस्वी नृत्यअंगी
निपुण खड़क तीर तलवारों में वीर-विरांगी
फिर भी नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
कर्म मेरे नहीं कर्म फल भी मेरे नहीं
मेरा जीवन धर्म मेरा नहीं
शैशव तो अनुभूत नही
तरुन देह लेकर जन्मी
अज्ञान सलिल की बूंदे बनकर
छिप जाती थी काल रात में
फिर कृष्ण प्रेम को त्याग कर
सखा अर्जुन को ह्रदयस्त कर
बंट गई देह दो शुद्धम भागो मे
भुला चुकी थी कृष्ण कामना
मन ह्रदय की उज्जवल आशा से
फिर भी नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
स्वंयवरा बनेने को प्रस्तुत थी
वीरत्व भी, चरम पराकाष्ठा दिखाये
कैसे पाएं दुर्पत जैसी “श्रेष्ठ कन्या”
लक्ष्य स्थल की मछ्ली का चक्षु रन्ध
भेद कर, शरलक्ष्य गिरा सकेगा वही
बन जायेगा दुर्पत-जमाता
उदघोष की दुष्धुमन भ्राता ने
इन्र्द पूरी सी नगरी में खुब था आडंबर
स्वर्ग अप्सरा का होने को था स्वंयवर
फिर भी नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
भरी सभा मे लाज्जित थी लोलूप दृष्टि से
उतकुंठ आधरण थे मेरी देह गंघ की कुष्ठित से
वरवनरिणी सर्वगुणसम्पन्न स्वल्पभषिणी
विद्यावती विचारशीलता शास्त्रज्ञा संगीत निपुण दिव्यदर्शनी
सौंदर्यवंत निपुर्ण अचरज नीलमणि कलावती
फिर भी नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
धनु उत्तोलन में पराजय अनेका भूपति
कवच कुंडल विभूषित वीर पुरुष अपमानित
वरवारिणी कृष्णा लिए वरमाला वर को समर्पित ल
निराष्पूर्ण ह्र्दय में तड़ित स्तोत्र से हुआ प्रकम्पित,
हुये भिक्षुक भेष में मध्यम पांडव हुआ अकम्पित
तेजस्वी ओज धनुधारी देवशिशु से हुआ झम्पित
पांच शर छोडकर चक्षु स्थित कनक मीन का नयन भेद कर
भूमि को किया नतमस्तक पांच देव को नमनकर
वरमाला लिए वरवनरिणी पूर्ण किया स्यंमवर
स्त्री धर्म पर आंच आये, पर पिता धर्म की रक्षा की
फिर भी नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
अर्जुन सहचारिणी का मान बनकर भी सम्मान में वो घट गई
कुंती माँ के ब्रह्म वाक्य से पांच भाइयो में बंट गयी
पांडव की कुलवधू बनकर पांचाली नाम से छट गयी
फिरभीनायिका बनी कलंक भरी कहानी की
अपनी सीमाएं लांघ गए द्यूत-क्रीड़ा में भूल गए
धर्म रक्षा में फंस गए धर्मावत राजपाट सब हार गए
भीम अर्जुन नुकुल सहदेव सब दास बन गए
यह कैसा धर्म जहाँ नारी का सम्मान छूट गया
भरी सभा मे के संस्कारो को भूल गए
ना समझे नारी के शोषित मन लुट को गए
भीष्म द्रोण कृपाचार्य किस तृष्णा से टूट गए
कपटी शकुनि के कपट के अब सारे राज खुल गए
फिर भी नायिका बनी कलंक भरी कहानी की
पंच पाडंव की प्राण प्रिया इंद्रप्रस्थ की पटरानी का
कृष्ण वासुदेव की सखा अर्जुन की वरवारिणी का
दुशाशन के निर्लज्जता से लजित सौम्यनारायणी का
यह कैसा आतिथ्य देव सत्कार नवबधु वरिणी का
सभागृह में दु:शासन ने किया कलंकित नारी के सामर्थ्य का
हुआ दुर्व्यवहार दुर्योधन से हस्तिनापुर के आथित्य का,
काले घुँघराले केश स्वेत वस्त्राभूषण,
कुचले साँप की तरह फुंफकार रहे थी।
सतीतत् की दुर्भ- भाषण
पँचपतियो की ख़ातिर लाज्जित हो रहा मेरा आकर्षण
फिर भी नायिका बनी कलंक भरी कहानी
घन घोर लज्जित सभा मेंअन्याय का समावेश,
किया दुर्योधन ने वस्त्र हरण का अध्यादेश ,
देवरथ की कुलवधू का हो रहा था चिरहरण
वो थी रजस्वला जो लजित हो रही भरी सभा मे
मचा कोलाहल दुद्ध सभा मे हार गए सब धर्मसभा
क्या करूणा नही रही शेष इतने हो गए हिसंक हो,
भरी सभा में सब सब योद्धा हो गए नपुंसक ,
आज पितामह कि कुल वधु ज्योति से मलिन हुई है
आज लगा है मुझको यह धरती वीर पुरुषों से हीन हुई
क्यो बनी नायिका कलंक भरी कहानी की।
खड़ी दोर्पति वस्त्र सँभाले पास खड़ा था दुशासन
डोल रहा था कुरु वंश ओर धृराष्ट का सिंहासन
भूल गए सब मर्यादा निलर्ज हो गये अब ज्यादा
आज दोर्पति के मुखमण्डल की आभा हीन हुई
पंच पतियों की पांचली आज वैभव से दीन हुई
अन्धराज के अंधसभा आज द्रिष्टि से हीन हुई
इतिहास के पृष्ठ पन्नो पर नारी फिर विलीन हुई
जनक जानकी कीआज फिर अग्निपरीक्षा साकार हुई
पुरुषत्व समाज मे फिर नारी तिरस्कार से ग्रसित हुई
ओर बनी में नायिका कलंक भरी कहानी की
गोविंद मेरे कुज बिहारी आओ बनकर जीवन दाता
कहाँ छूपे हो नंदकिशोर तुम सर्वजगत के ज्ञाता
सखी तुह्मारी अर्धम सभा मे हुई कलंकित ज्यादा
शरण मे आज आन खड़ी है रक्षा मेरी करने आजा
करुण पुकार की करूँ गुहार, मुरलीमनोहर बनों आधार
चरित्रहीन न होऊ आज, मेरा जीवन हो जाएगा निराधार,
अबला की प्रभु राखो लाज, चक्रधारी अब आ जाओ
भक्त रक्षा की करे पुकार, माधव गिरिधर चीर बचाओ
ना आदिप्ति श्री कृष्ण का मुखमंडल ना प्रकट भये नंदलाल
चला सुदर्शन च्रक, सभा मे लाज बची दुपर्द कन्या की
आस्तित्व सामर्थ्य बचा नारी का सुत चुकाया अपने ऋण का
फिर भी नायिका बनी कलंक बनी कहानी की।
२) गृहणियां
सबके लिए तुम हरपल हर लम्हा जीती हो।।
खुद के लिए कुछ पल तुम जी लिया करो।।
सबकी खुशियों की तुम रोज परवाह करती हो।।
अपने लिए खुल कर कभी मुस्कुरा लिया करो।।
नही है यहां किसी को तुम्हारे सपनों की परवाह।।
हक़ से कुछ सुनहरे सपने सजा लिया करो।।
लगे जब भी तुम्हे तुम कैद हो जिम्मेदारियों में।।
खुले आसमां में बांहे फैला तुम झूम लिया करो।।
तुम्हारे बिन अधूरी है ये दुनियां ये क़ायनात,
कभी कभी खुद पर ग़ुरूर कर लिया करो।।
नही हो तुम आम न खुद को कम समझो,
रिश्तों से परे स्त्री की ताकत को आंक लिया करो।।
तुम चाहो तो पलट दो पल में सारी क़ायनात,
ख़ुद को कभी दुर्गा, लक्ष्मी समझ लिया करो।।
स्वयं को कमज़ोर लाचार अबला न समझो,
गलत का मुँह तोड़ जबाब दे दिया करो।।
३) होते हुए देखा है
मैंने खुद पर ये सितम होते हुए देखा है
यार को नजरों से बिछड़ते हुए देखा है
मुतरीब बजाता रहा शहनाइयां जलसे में
मैंने बेदर्दी को तन्हा रोते हुए देखा है
साहेबान देखते रहे साहिलों से नजारा
मैंने तिनकों की तरह किसी को डूबते हुए देखा है
बुझ गया चराग आखिर अंधेरी रात से हारकर
मैंने किसी दिलजले को रात तमाम जलते हुए देखा है
शोर मचाता रहा कोई अपने लूटने का
मैंने किसी को खामोश चीखते हुए देखा है
सावन में तरसता रहा कोई बूंद बूंद को
मैंने सेहरा में किसी बादल को बरसते देखा है
यूं क्या की आए सनम जरा देर से तो रूशवा हो लिए
पथराई हुई आंखों को हमने राह में बिछाते हुए देखा है