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बूँद

सर्द सुबह की मीठी गर्माहट लिए सूर्य की लालिमा युक्त रश्मियों का कोमल पुष्प-लताओं के स्पर्श का आनन्द, निर्लिप्त लालित्ययुक्त ओश की ढुलकती हुई बूंदों में इन्द्रधनुष की अभिव्यक्ति है। तो वहीं पर सुख-दुःख के गहरे भावों की ठंडी बर्फ भी, अनुभूतियों के ताप से द्रवित होकर निष्पाप कपोलों पर ढुलते नयन-नीर अपने उष्णता से संबंधों की तीव्रता मौन गाथा को व्यक्त कर जाते हैं।

सुना है हठ-योगी चातक और उनके ही कुल के पपीहा पक्षी वर्ष भर का निर्जल व्रत कर अपनी पिपासा को चरमोत्कर्ष तक धकेलते हुए, केवल स्वाति नक्षत्र में मेघ-वर्षा की जीवनदायी स्व-उपलब्ध बूँदों को अपने चोंच में आगामी वर्ष की स्वाति नक्षत्र की वृष्टि तक सहेज लेता है। सम्भवतः ये पक्षी अपने हठी स्वभाव से स्वावलंबन, आत्म-नियंत्रण और स्वाभिमान के उत्कट उदाहरण प्रस्तुत करने के साथ ही साथ अपनी मधुर बोली से पाषाण के ह्रदय में भी प्रेम-धारा के प्रपात को जन्म दे जाते हैं।

स्वाति नक्षत्र में बारिश की बूंदों का अद्भुत संगम कैसे बहुमूल्य हो जाता है? वह भी प्रकृति के अनमोल उपहारों में से एक है। एक सम-सामयिक उदाहरण भी सर्वविदित है। समय की प्रतिबद्धता तथा सुंदर संयोग के सम्मान में बहुप्रतीक्षित सीप अपने बाँहों को फैलाकर स्वाति नक्षत्र में बरसते हुए अमृत-बूँदों का स्वागत कर, सुरक्षा की सहजीविता से अपनी मित्रता की मिशाल, समस्त विश्व के समक्ष मोती के रूप में प्रस्तुत करती है।

अजेय दुर्गम पवर्त श्रृंखलाएं जहाँ तापमान शून्य से भी नीचे चले जाने पर जल अपनी अवस्था को प्रकृति के अनुरूप हिम के स्वरूप को धारण कर लेता है। वहाँ भी मानव अपनी जीवन यात्रा की निरन्तरता के लिए हिम-खण्डों को अग्नि के सम्पर्क में लाकर अन्न को पकता है। इस तरह हिम खण्ड से जल और फिर वाष्प का सम्बन्ध स्थापित होता है। प्रकृति और मानव के बीच जल की अनेक अवस्थाएँ परिलक्षित होती हैं।

कृषक के कठिन परिश्रम से शरीर के जल संतुलन का परिणाम उसके स्वेदबिन्दुयों का प्रकटीकरण, देह का ताप नियंत्रण है। उसी तरह पृथ्वी पर बढ़ते तापमान से वाष्पित जल उर्ध्वगामी हो मेघ बनकर, पुनः घनघोर घटाएँ सभी के लिए मंगलदायी होती हैं। समष्टि के लिए वृष्टि एक नए वातावरण का निर्माण करते हैं। ‘बूँद-बूँद से सागर भरता है’ की कहावत सामान्य से विशिष्ट की ओर के प्रयाण का संकेत है और समर्पण के आदर का प्रतिफल भी। जल से हिम और हिम से जल, जल से वाष्प और वाष्प से जल, का रूप परिवर्तन समय की अनुरूपता में अस्तित्व का अनुकूलन है।

शीतलता प्रदान करना जल का स्वाभाविक गुण माना जा सकता है। जहाँ तक पृथ्वी पर शीतलता के आवरण से आनन्द की अनुभूति का प्रश्न है, तो वह निश्चित रूप से चन्द्रमा की किरणों का मधुर स्पर्श ही है जो सृष्टि-जगत को आह्लादित कर जाता है। शीतलता को अगर मध्य स्थान में रखकर विचार करते हैं तो जल और चन्द्र का भी एक अटूट सम्बन्ध प्रतीत होता है।

हम अपने दैनिक जीवन में इसका अनुभव कर सकते हैं। महासागर विस्तृत जलराशि का स्वामी है, पर वह अपने चिर मित्र के दर्शन को प्रतीक्षित एक टक आकाश में निहारता रहता है। उसके स्वागत में समृद्ध लहरों को मुक्त कर देता है। जो शक्तिशाली उच्छवासों के साथ दौड़ पडती हैं, पूर्ण चन्द्र का अद्भुत रूप देखकर उसे पाने के लिए अनियंत्रित होकर। कुछ पलों के लिए ही सही सभी मर्यादाएं भुलाकर आकाश को भी तिरोहित करने का दम भरती हैं। चन्द्रमा भी मधुर मुस्कान भरते हुए उन उफनती लहरों में अपनी सुखद धवल किरणों को समाहित कर देता है। कैसे अद्भुत प्रेमी हैं और कैसा उदात्त समर्पण के साथ अपरिमित उनका स्नेह युग पर्यन्त अविनाशी है। धन्य है उनका निश्चल प्रेम।

वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसके कई कारण हैं जिसके मूल में जल है। माना जाता है कि पृथ्वी के विस्तृत साम्राज्य के तीन भाग पर जल का अधिपत्य है। जो चन्द्रमा का अनन्य प्रेमी है, इसी के पूर्ण चन्द्र दर्शन पर ज्वार-भाटा आता है। अन्य के लिए केवल एक भूभाग शेष रह जाता है। इसी सम्बन्ध में हम अगर मानव शरीर संरचना में प्रयुक्त तत्वों की बात करें तो उसमें भी जल लगभग ९०% होता है। यह वैज्ञानिकों द्वारा दिया गया तथ्य है। चूँकि चन्द्रमा के प्रति अनुराग जल का स्वभाव है, अतः सम्भावना है कि जीव जगत के सभी प्राणियों को इसकी शीतलता प्रिय होती है। मानव जाति के संदर्भ में भी यह बात शत-प्रतिशत सिद्ध होती है। न जाने कितने काव्य और प्रतिमान चन्द्रमा की चाँदनी से माधुर्यता को प्राप्त हुए और जगत में आनन्द को उपलब्ध हुए हैं।

महासागर की उद्वेलित लहरों के सुमधुर संगीत पर न जाने कितनी विलीन नदियों की अदृश्य धाराओं का मनमोहक नर्तन प्रवाहित होता है। महानता के गर्वित उच्छवासों में लघुता के सांसों का सर्वस्व समर्पण है। एक बूँद की यात्रा में हिम, ओश, जल, वाष्प और मेघ आदि से अन्त के मार्ग का रूपांतरण, जीव के जीवन और पृथ्वी के अस्तित्व का संरक्षक है। जल अपने सभी रूपों में जीवन के उल्लास का अनुभव रहा है।

निःसंदेह प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए सभी के अस्तित्व का सम्मान करना होगा। जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति है, तो जल को संरक्षित करना होगा। कहा गया है कि ‘जल ही जीवन है’ तात्पर्य जल की अनुपस्थिति में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। रही बात आनन्द की तो जल की उपस्थिति इस के लिए पहली अनिवार्यता है।सभी जीवों के जीवन में आनन्द भी जल में ही निहित है।

एक प्रसिद्ध वेद-वाक्य में इसका सार निहित है, ‘धर्मों रक्षति रक्षतः’ अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा धर्म भी करता है। यदि जल प्राण है तो इसकी रक्षा करना जीव का सामान्य सामाजिक धर्म हुआ तो वहीं पर संरक्षित जल भी जीव की रक्षा के धर्म का अनुपालन करता है। सामान्य रूप से हमारी उत्तरप्रदेश की लोकभाषा में भी एक कहावत है,- ‘वन राखै सिंह त सिंह राखै वन’ अर्थात सिंह की रक्षा का दायित्व वन वहन करते हैं तो वन की सुरक्षा का दायित्व सिंह वहन करता है। यही धर्म कहता है। अतः धर्म का आचरण करें और धर्म से संरक्षित रहें।

~ परंतप मिश्र

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