कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में आज हर कोई असुरक्षित महसूस कर रहा है। लोगों को घर में ही स्वयं को कैद होने और अपनो से दूर रहने को विवश होना पड़ा है। आज इस महामारी से अपने देश में अगर कोई वर्ग सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है तो वो है मजदूर वर्ग। कारखाने-मीलें सब बंद हो गई। इनके सभी काम ठप पड़ गयें। कमाने का सब जरिया बंद हो गया। इनके अपने घर नहीं है।फलतः इन्हे पलायन होने को मजबूर होना पड़ा है। बचपन से अपने आस-पास मजदूरों की जिंदगी को करीब से देखा है। आज ‘कोरोना वारियर’ के रूप में बिहार के एक ‘कोरेनटाइन सेंटर’ पर अपनी सेवाएं दे रहा हूँ। यहाँ दूसरे राज्यों से आये हुए बिहारी मजदूरों को रखा गया है। प्रस्तुत आलेख में मैंने उनकी पीड़ा को समझने का एक छोटा प्रयास किया है।
मैं मजदूर हूँ। मैं देश की आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा हूँ। देश में कोई भी विकास के काम बिना मेरे सहयोग के नही होते या कहें जमीनी रूप से मेरे द्वारा ही किये जातें हैं। सडकें बनानी हो, रेल-पटरियाँ बिछानी हो, बिजली के खम्भे और तारों को लगाना हो, ऊँची -ऊँची इमारतें खड़ी करनी हो, कारखानों में ज़रूरत के सामानो को बनाना हो, नहर-पईन खोदने हो। ऐसा कौन सा आधारभूत काम नहीं है जिसे मैं न करता होऊंगा।
मेरे अनेको रूप है। मैं पुरे मानव-जैवमंडल पर पाया जानेवाला प्राणी हूँ। मैं संगठित भी हूँ और असंगठित भी। मैं ही कुली हूँ, मैं ही कारीगर हूँ, मैं ही खेतिहर हूँ, मैं ही बंधुआ हूँ और मैं ही दिहाड़ी हूँ। मैं कचरा बीनने वाला भी हूँ और सिर पे मैला ढोने वाला भी। मैं कम या ज्यादा डिमांड में बना ही रहता हूँ। मेरे बिना किसी का भी काम नही चलता। इन सबके वाबजूद शायद ही कोई मेरी क़द्र करता हो। मैं शानदार इमारतें बना सकता हूँ पर उसमें रह नही सकता। मैं रेल-निर्माण कर सकता हूँ पर एसी क्लास में सफ़र करने की मेरी औकात नही। मैं बिजली के तारों को लगा सकता हूँ पर खुद के बिजली के बिल मुश्किल से भर पाता हूँ। मैं नहर-पईन खोद सकता हूँ पर पानी ले जाने के लिए मेरे अपने खेत नही हैं।
मेरी महिमा इतनी बड़ी होने के वाबजूद मैं सदा अभावों में जीता हूँ। मैं अपना और अपने परिवार का विकास नही कर पाता हूँ। दो जून रोटी के लिए संघर्ष करता रहता हूँ। साधारण कपड़े पहनता हूँ, फटे, पुराने और पैबंद लगे भी चल जातें हैं। मेरे बच्चे तो आधे-अधूरे कपड़े से भी काम चला लेतें हैं। कम आमदनी में मैं रूखे-सूखे भोजन खाकर और कभी आमदनी न होने पर भूखे पेट भी रह लेता हूँ। मैं हमेशा संघर्षों के बीच जीता हूँ और मर जाता हूँ। मैं कभी तरक्की नही करता। एक मजदूर के रूप में जन्म लेता हूँ और मजदूर के रूप में ही मर जाता हूँ। अपवाद रूप में ही मेरी या मेरे बच्चों की तरक्की होती है । यदि मैं अपने बच्चों को आर्थिक तंगी के कारण ठीक से पढ़ा-लिखा न पाया तो आगे चलकर वो भी हमारे ही रहा को चुनेंगे यह तय बात हैं।
अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक आधार पर इंसानों का जो बटवारा किया है उसमें मैं ग़रीब वर्ग में आता हूँ, जिसको आधार बनाकर सरकारों ने आज़ादी से अब तब न जाने कितनी ही कल्याणकारी योजनाएं मेरे लिए बनायी है। पर फिर भी मैं वहीं हूँ। मेरी दशा जस-की-तस है । अपवादस्वरूप यदि मैं या मेरे बच्चे मेरी श्रेणी (ग़रीब ) से निकल ऊपर की श्रेणी में जातें भी है उसमें सरकारों का योगदान कम अपना सामर्थ्य ज्यादा होता है। पर जिंदगी ज्यादातर रोजी-रोटी की जुगाड़ में ही निकल जाती है तो फिर कहाँ से बच्चों को अच्छी शिक्षा-दीक्षा दे पाउँगा? मेरे नाम पर कितनो की ही राजनीति का धंधा चमकने लगता है। मेरे लिए लड़ने वाले शूट-बूट पहनने लगतें हैं, इम्पोर्टेड कार में घूमने लगतें हैं, बड़े-बड़े महल तक खड़ा कर लेतें हैं, पर मैं वहीं का वहीं रह जाता हूँ।
मैं वासी हूँ और प्रवासी भी। अंग्रेजों के ज़माने में मैं दूसरे देशों में गया तो प्रवासी कहलाया पर अब तो अपने ही देश के दूसरे राज्यों में जाने से भी प्रवासी कहलाने लगा हूँ। यदि कोई वैश्विक संकट आ खड़ा होगा जैसा कि आज ‘कोरोना महामारी’ दुनिया में फैली हुई है और अपने देश में त्रासद साबित हो रही है, तो यदि मैं दूसरे राज्य का हूँ तो वहाँ मेरा कोई आसरा नही रह जायेगा। मेरा कमाने का जरिया ख़तम हो जायेगा। मज़बूरन मुझे अपने गृह-राज्य पलायन करना पड़ेगा। कोई सरकार मुझे रखने की भी जहमत नहीं उठाएगी तो कोई सरकार मुझे अपने घर बुलाने में आना-कानी करेगी। घर भेजनें को सरकारों में आपसी सहमति भी बनी तो किराये का भार खुद न उठाकर उलटे मुझसे ही कंगाली में आटे गीले कराएगी। खर्च न उठा पाने की हालत में मैं पैदल ही अपने घर को निकल पड़ूँगा या किसी ट्रक, ट्रैक्टर, लॉरी या कोई भी समान ढोने वाले वाहन में जानवरों की भांति अपने-आप को ठूंसकर घर की ओर बढ़ चलूँगा। आख़िर मरना ही है तो अपने लोगों के बीच और अपनी मिट्टी में ही मरुँ। पर आह ! मेरी यह चाह भी कभी-कभी पूरी नहीं होती। बीच राह में किसी दुर्घटना का शिकार होकर काल के गाल में भी समा सकता हूँ। कभी ट्रेन की पटरियों के बीच कुचला जा सकता हूँ तो कभी भीषण सड़क हादसा का शिकार हो सकता हूँ। इसी बीच सरकार हमारे लिए खजाने खोलने के बड़े-बड़े दावे करेगी। तमाम तरह की सहूलियतें देने की घोषणा करेगी। पर कोई भी सुविधा हमारे जीवन को आसान बनाने में नाकाफ़ी साबित होगी।
मैं चिंतित हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं लाचार हूँ, मैं अभावग्रस्त हूँ, मैं कुपित हूँ, मैं बड़े-बड़े शहरों में भीड़ में रहकर भी तन्हा हूँ, मैं अपनो से दूर हूँ। मुझे भी अपनो की याद आती है, अपना गांव याद आता है, अपने दोस्तों की याद आती है। मैं भी रोता हूँ, मुझे भी दर्द होता है। आख़िर मैं हूँ तो एक इंसान ही। पर इन सबके वाबजूद मैं हँसता हूँ, सबसे बात करता हूँ, दुनियादारी करता हूँ, अपना हुनर जानता हूँ, अपने काम पे भरोसा है, ईमानदार हूँ, मेहनती हूँ। मुझे खुद पर गर्व है, क्योंकि मैं मजदूर हूँ। बस, मेरी तमन्ना सिर्फ इतनी है कि जिस तरह मैं देश की ज़रूरत हूँ सरकारें और संस्थाएं मेरी भी जरूरतों को समझें। मैं मजदूर ही रहूँ पर मैं ग़रीब न रहूँ इसका उपाय निकाला जाए। मेरे बच्चे भी अच्छे से पढ़े और उनको बेहतर अवसर मिले, पैसा इसमें बाधा न बने। जिस प्रकार विकसित देशों में मजदूर खुशहाल हैं मैं भी मेरे देश में खुशहाल हो जाऊं। बस इतनी ही तो ख्वाहिश है मेरी।
लेखक ~ विनय कुमार वैश्यकियार