गुरु महिमा- गुरु ही भवसागर पार कराते हैं।
हम सभी किसी न किसी उलझन में फंसे रहते हैं, हांलांकि उनसे छुटकारा पाने के लिए स्वयं ही लड़ना होता है किंतु कभी-कभी हमें सूझता ही नहीं कि कौन सा मार्ग अपनाएं। ऐसी परिस्थितियों से जो भी हमें सद्बुद्धि प्रदान कर उबार दे वह गुरु ही है। गुरु को उसकी वेशभूषा, महारत और ख्याति के आधार पर मत आंकिए, हमारे लिए वह कोई भी हो सकता है, एक साधारण व्यक्ति भी। जिन बातों/रहस्यों से हमें पीड़ा होती है गुरु सदैव ही उन गूढ़ रहस्यों से पर्दा उठाकर हमारे भीतर ज्ञान की ज्वाला प्रज्ज्वलित करते हैं। ऐसा होने पर हम खुद को कुछ हद तक समझने का प्रयास करते हैं और दूसरों का अहित नहीं करते।
गुरु (गु- अंधकार, रु- उसका निरोधक) हमारे जीवन में व्याप्त अंधकार को दूर कर प्रकाश प्रवाहित करते हैं।
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु र्गुरूदेवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
गुरु शिष्य बना उसे एक नया जन्म देता है इसलिए ब्रम्हा, गुरु शिष्य की रक्षा करता है इसलिए विष्णु और वह शिष्य के अवगुणों का संहार करता है इसलिए महेश भी कहा जाता है। भारत में अनेक महान संतों ने जन्म लिया और दुनिया को अपने सुविचारों से बड़ी सीख दी है। संत कवियों के मतानुसार संसार रुपी भवसागर को पार करने में गुरु ही सहायक होता है।
निम्नलिखित दोहों में गुरु की महिमा का वर्णन संत कबीरदास ने बड़े ही अनूठे तरीक़े से किया है।
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत, अनंत दिखावण हार।१।
~ सद्गुरु अपने शिष्यों पर बहुत उपकार करते हैं उनकी महिमा अपरंपार है। गुरु ने ही विषय सुख में लिप्त शिष्य की आंखें खोल ऐसे ज्ञान की ज्योति प्रवाहित की कि उसे अनंत ईश्वर/ब्रह्म के भी दर्शन करा दिए।
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपणे, गोबिंद दियो मिलाय।२।
~ ईश्वर और गुरु एक साथ सामने खड़े हों तो गुरु के चरण प्रथम पड़ने चाहिए क्योंकि उन्हीं की वजह से ईश्वर के भी दर्शन प्राप्त हुए।
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि गढि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।३।
~ कुम्हार जिस तरह घड़े को सुन्दर बनाने के लिए भीतर-बाहर हाथ से थाप मारता है उसी तरह गुरु अपने शिष्य को अनुशासन में रख ज्ञान प्रदान करता है।
भक्ति पदारथ तब मिले, जब गुरू होय सहाय।
प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय।४।
~ भक्ति तभी हासिल होती है जब गुरू सहायता मिले अन्यथा यह बहुत दुर्लभ है।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त।५।
~ पारस पत्थर तो सिर्फ़ लोहे को सोना बनाता है लेकिन गुरु अपने शिष्य को स्वयं जैसा बना देता है।
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं।६।
~ गुरु का आदर-सत्कार करनेवाले और उनकी आज्ञा माननेवले शिष्यों को संसार के तीनों लोकों मे किसी से भय नहीं लगता है।