मेरी कुछ यादें – शशीधर चौबे

प्रयागराज से दिल्ली की सड़क यात्रा

सुबह के करीब आठ बजे निकले थे हम प्रयागराज से, घर से निकले तो सबसे पहले ATM से पैसे निकाले, फिर बाइक को पेट भर पेट्रोल पिलाया। हालांकि एक दिन पहले ये तय किया गया था कि सुबह पॉंच बजे निकला जायेगा पर देश है तय समय से कहा चलता है। शहर से बाहर निकलने भर में इतना ट्रैफिक मिला की हालत ख़राब हो गयी। रास्ता बहुत दूर का था ट्रैफिक ने हालत ख़राब कर दिया, एक बार तो मन ने सोचा कहीं गलत निर्णय तो नहीं ले लिया फिर मन को हिम्मत बंधाया, पीछे वाले मित्र से दो-चार बातें की और फिर वाहन की रफ़्तार कुछ तेज कर दी। थोड़ी समस्या भी थी, दो दिन पहले ही गाडी का इंजन ठीक कराया था और मिस्त्री ने सख्त हिदायत दी थी कि 50 किमी प्रति घंटा से तेज नहीं चलाना और प्रत्येक एक घंटे पर वाहन को विश्राम देना और अगर ऐसा नहीं किया तो इंजन का ठेका हमारा नहीं। गति पचास किमी से तेज होती तो मिस्त्री भूत की तरह सामने दिखाई देता और मैं डर जाता।

खैर करीब एक घंटे चलने के बाद ढाबे पे रुका गया, बिना कुछ खाये निकले थे तो सोचा कुछ नाश्ता किया जाये, ढाबा वाला आलू पराठा खिलाने को तैयार हुआ। कुछ देर बाद वो पराठा ले के आया तो लगा की मानो तेल वो मुफ्त में पाता हो, हालांकि उसने इसे घी कहा था। फिर उसने चाय पिलाई जिसकी तारीफ की जा सकती है। वहां से निकलते समय पूरे जोश के साथ मैंने उसकी तारीफ़ की और नाश्ते के लिए धन्यवाद कहा। ऐसी बात नही है पैसे भी दिए थे।

महीना सितम्बर का था पर आसमान ऐसे साफ़ था मानो स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत यहीं से हुई हो। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-2 (जिसे जीटी रोड भी कहते हैं) पे रेंग रहे थे हम क्योंकि मिस्त्री की बात लगातार गूंज रही थी। हर घंटे पे हमें रुकना था। इस बार फिर हम एक ढाबे पे रुके गाडी को पेड़ की छाँव में खड़ी कर कुर्सी पे बैठ गए। कोल्ड ड्रिंक मंगाई,पी रहे थे तब तक एक सज्जन आ के बोले, भाईसाहब क्या वो काली पल्सर आपकी है ? मैंने कहा – हाँ, तो वो बोले उसका तेल बह रहा है। मैंने गाडी का तेल बंद किया और सोचने लगा की अब क्या करुँ? अब तक उस वाहन मिस्त्री का भूत भी फरार हो चूका था। खैर वहां से निकले और किसी तरह एक वाहन मिस्त्री के पास पहुँचे। मिस्त्री आधा घंटा लगा रहा और इंजन का पुर्जा-पुर्जा अलग कर दिया। मै घबरा रहा था कि क्या ये फिर से इन्हे जोड़ पायेगा ? लेकिन उसने बना दिया।

हम सुबह से निकले थे और दोपहर हो गयी थी, हम कानपुर नहीं पहुंचे थे। राष्ट्रीय राजमार्ग-2 पर ट्रकों के पीछे चल रहे थे किसी तरह कानपुर पहुंचे। शहर को पीछे छोड़ शाम के चार बजे एक दक्षिण भारतीय स्टाइल ढाबे पर खाना खाया गया। अँधेरा तीन घंटे की दूरी पे था और यात्रा बहुत बची थी। तय ये था कि आगरा रुकेंगे पर आगरा पहुंचने से पहले ही अँधेरा हो गया। करीब नौ बजे इटावा पहुंचे। सिर्फ सोना था तो एक सस्ता सा होटल खोजा, उसे पुरे 350 रुपये दिए जिसमें उसने कहा था कि टीवी भी चलेगी। जब कमरे में पहुंचे तो वहां टीवी था। मैंने टीवी चलाया तो नहीं चला फिर होटल के स्टाफ को बुलाया और उसने टीवी चला दिया और बोला देखिये चल तो रही है। फिर वो आदमी मुझपे टीवी चल जाने का रौब झड़ते हुए चला गया। मुझे उसकी इस हरकत पे हसी आ गयी क्योंकि टीवी तो चला पर चैनल का कनेक्शन न होने की वजह से उसमे कुछ आ नहीं रहा था।

किसी तरह वहाँ रात गुजारी और फिर सुबह चाय पी के शेविंग करवा के वहाँ से निकले। ऐसे ही रुकते चलते दोपहर में आगरा पहुंचे। सदियों पहले एक प्रेमी शहंशाह ने वहां ताजमहल बनवाया था, उसे देखना था। किसी तरह भटकते रास्ता पूछते वहाँ पहुंचे। गाडी पार्किंग में लगाई अंदर गए। ताजमहल के सामने खड़े हो फोटो खिचवा रहा था तभी एक सज्जन आये और मुझसे मेरा धुप का चश्मा माँगा क्योकि उन्हें फोटो खिचवानी थी। दस मिनट वो फोटो ही खिचवाते रहे, मजबूरन मुझे ही कहना पड़ा कि अब बस करिये क्योंकि मुझे अपना चश्मा चाहिए था। ताजमहल से बाहर निकल के जब गाडी के पास पंहुचा तो मेरे पास गाडी की चाबी नहीं थी, मै समझ गया की चाबी गुम हो चुकी है। पार्किंग वाले से पूछा तो चाबी उनके पास थी जिसे मै गाडी में लगा ही छोड़ गया था। पार्किंग वाले ने ताने वाले लहजे में सीख दी कि ऐसी लापरवाही नहीं करनी चाहिए मेरी जगह कोई और होता तो चाबी नहीं देता। मेरे मन में ये सवाल उठा की वो चाबी नहीं देता तो उस चाबी का वो करता क्या? पर मै उससे ये सवाल पूछ ना सका। खैर चाबी मिल जाने से काफी ख़ुशी मिली क्योकि नाजायज परेशानी और देरी से हम बच गए थे।

आगरा से निकलते हमें तीन बज गया और अभी 240 किमी का सफर बाकी था। शहर से बाहर निकल के यमुना एक्सप्रेस-वे पे आये जो आगरा को नोएडा से जोड़ती है। मेरे पास गुझिया और पेड़ा था तो उस रोड पर हमने गुझिया और पेड़ा खा कर जीवन चलाया। इस रोड पर ढाबे नहीं है पर टोल बूथ के पास जन-सुविधा केंद्र बना है जहाँ खाना-नाश्ता हो सकता है पर बहुत महंगा है। इस यात्रा की आखिरी चाय इसी जन-सुविधा केंद्र पर पी गयी जो 40 रु की एक थी। फिर वहाँ से चले तो करीब नौ बजे दिल्ली पहुंचे। जो भी रहा हो पर नया अनुभव मिला था, मजा आया।

मेरी और चंदू दोनों की, बाइक से, इतनी दूर की ये पहली यात्रा थी। ये यात्रा वृतांत सितम्बर 2015 का है।

लेखक: शशीधर चौबे, भदोही


Comments

One response to “मेरी कुछ यादें – शशीधर चौबे”

  1. Chandresh Avatar
    Chandresh

    Mi bhi sath tha ..

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