इमरान संभलशाही जी की दस कविताएं

१) उपकार करो या सत्कार करो

उपकार करो या सत्कार करो
स्नेह मुहब्बत हर बार करो

हो जीवन सावन जैसा
रहो न जग में ऐसा वैसा
बारिश की फुहार बन कर
रिमझिम सी हर बार मरो

लहर बनो प्यार के खातिर
न मन में हो द्वेष का शातिर
मन भेजो न इधर उधर
तूफ़ान को खबरदार करो

लहज़ा भी बस नरम रहे
कड़ुआ वाणी पिघल बहे
व्यवहारों को मिला मिला के
कुसंग से सौ बार डरो

ममता को नजदीक बुलाकर
अपनापन आगोश में लाकर
हर संध्या आंगन में जाओ
न चूल्हों से बेतार जरो

रंग बिरंगे फूल सजाओ
सतरंगी खुशियां मनाओ
काले सफेद का भेद मिटाकर
दुख पीड़ा हर बार हरो

शीतल पानी भरकर लाओ
इकबार नहीं सौ बार जाओ
सौ मटका मचल पड़े भी
उठकर हज़ार बार भरो

सौतन को भी अपना लो
कुसंस्कार को दफना लो
बादर जब जब बरसे पानी
निकल निकल हरबार तरो

सेवा मां की खूब किया कर
पगडंडी में साथ जिया कर
डॉट भी गर दे जननी तेरे
न उनसे भर घर द्वार लरो


२) छलछलाता हुआ सौंदर्य

छलकना” और “छलछलाना” शब्द से
सभी परिचित होंगे
है ना! “जल” शब्द से जुड़ा हुआ शब्द लगता है

विचार करने में लग गए होंगे ना!
जैसे “छलकता हुआ जल”
व “छलछलाता हुआ पानी” इत्यादि इत्यादि
बचपन से तो यही देखा था कि
पनिहारिनें कुएं से कलश उठाए गुजरती थी तो कोई
पड़ोसी के नलकूप से भरी बाल्टी लिए

लेकिन आज मै पुछता हूं
क्या “सौंदर्य” को छलछलाता व छलकता हुआ देखा है आपने?
फिर विचार में पड़ गए आप ना!
हम चमकने की बात ही नहीं कर रहे

मै बताता हूं
मैंने देखा है आज
अपनी चक्षुओं से
आज जब सभी मानव अपने अपने आशियानों में क़ैद है
तब, पूरी प्रकृति छलकता व छलछलाता हुआ
दिखाई पड़ रहा है

मेरे ख्याल से छलकता व छलछलाता हुआ सौंदर्य
ही सर्वश्रेष्ठ होता है
इसीलिए, इसे भविष्य में बचा के रखिए
वादा करिए, करेंगे ना!


३) चिलबिल का पेड़

है बड़ी सी चिलबिल का
घर सामने इक पेड़
हरे भरे मौसम को छोड़
हो गया अधेड़

चैत मास में उसके
पत्ते सारे झड़ जाते है
तिनके तिनके हरे रंग से
कहीं कहीं चढ़ जाते है

जड़ से लेकर पुनुई तक
जैसे दिखती रेड़
है बड़ी सी चिलबिल का
घर सामने इक पेड़

महीने मार्च में
पतले छोटे फल फल जाते
हरे रंग के मंद पवन में
लहराते सब मन भाते

दूर से देखो जैसे लगता
टहल रहा जरेड़
है बड़ी सी चिलबिल का
घर सामने इक पेड़

अप्रैल माह में फल सारे
पककर हो जाते तैयार
कुछ ही दिन में हौले हौले
से त्यागेंगे बयार

उसका फल तोड़े खातिर
पवन चले हर मेंड़
है बड़ी सी चिलबिल का
घर सामने इक पेड़

चिलबिल जब झड़ झड़
गिरते है फर्शों पर
एक बवंडर में ही
उड़ जाते है अर्शों पर

छील छील खाते है सारे
जैसे तिनका बीने छेंड
है बड़ी सी चिलबिल का
घर सामने इक पेड़


४) दीवार उस पार

दीवार भी बन गई
पुताई भी हो गई
और तो और चित्रकला भी सज गई
हमने सुना कि
किसी के आने की ख़बर है

वो कौन है?
शासक ही जाने!
हम जनता, थोड़ा दीवार उस पार झांक ले
तो सिद्धि की प्राप्ति संभव हो

एक यथार्थ ही है
उस पार
मरियल छौना दुग्ध पीड़ित बेचैन होगा
कोई बाप प्यासा होगा
मां धंसी आंखों में छतराई होगी
बिटिया बालों में ज़ुं खातिर
नाखूनों से बालों में खरबोट रही होगी
अम्मा की अम्मा दीवार को ताक
विचार कर रही होगी
इसी सहारे मड़य्या बना लूं क्या?

टूटे-फूटे कांच, बिखरे कूड़े करकट सूखी गीली तालाब
महुआ व आम के पेड़ों संग
कंटीले बबूल
गेंदे के फूल व गुड़हल
कुछेक गुलाब भी शायद
नहीं तो मुश्किल ही है
गाएं, भैंसे व अन्य पशुएं
कमजोर हड्डियां
आंचलिक सारी दुश्वारियां
कुछ दिन बाद
अवश्य सोचेंगे की
दीवार उस पार आख़िर
जा रहा है किसका काफिला

जब कभी काफिला गुजरेगा
तो उसे हमें देखने से क्यो वंचित कर दिया गया?
क्यो मुझे ढक दिया गया?
हम इंसान नहीं क्या?
सबसे बड़ी बात,हम भारतीय भी नहीं क्या?

सच तो यही है कि
शासकों की खिसिया नीपोर
चाल चरित्र ऐसा ही था, है और रहेगा भी
आत्ममुग्ध, स्वार्थ से जकड़े
रंगे सियार की तरह!
और कुछ मुझे नहीं है कहना!


५) रिश्ते निभाना

रिश्ते निभाना
कोई उस लता से पूछे!
अपने सहारों को जो
कभी नहीं छोड़ती! साथ!
उस बांस से पूछे,
जो किसी बसवारी में ही दिखते है सदैव!
उस जड़ से पूछे
जो मृत्यु से पहले,
तने को कभी नहीं त्यागते!
खेत जोतते
दोनों बैलों से पूछे!
दो नहरों के बीच की
इकलौते उस पटरी से पूछे!
सूरज और रोशनी से पूछे!
चांद और चांदनी से पूछे!
गगन और तारों से पूछे!
परवाज़ करते
उन अनगिनत पक्षियों से पूछे!
हंस के जोड़ों से पूछे!
शेर और शेरनी से पूछे!
आकाश और पाताल से पूछे!
और तो और
“मा” द्वारा हाथ उठाए
उन दुअवो से पूछे!
एक इंसान ही है केवल “मा” के सिवा!
जिसे कोई ख़बर नहीं!


६) हाय री ठंड

है तू कहीं कहीं कुछ बेहतर रवानी
निगाह निगाह फरक बा
जइसन जो करत बा

अमीर लोग मखमली खाट मा उड़ा रहा गुलछर्रा
सिगरेट के धुआं में अपनी महबूबा संग निठल्ला
पसरी जुल्फों तले बालियों के संग वो
हो अल्हण मस्त मस्त बन अर्धनग्न वो
वो क्या जाने तेरी झूठी कहानी
हाय री ठंड तेरी जुल्मी कहानी

रईसी की ठाठ में शिमला को हो चले
कश्मीर कली संग रेलम रेल हो गले
मंहगो की महगाई का कहां है अब सितम
महबूब की अंगड़ाई में नहीं है कोई भी गम
भागा भागा तेवर भीगी भीगी बानी
हाय री ठंड तेरी जुल्मी कहानी

कहीं हाड़ भी कंपा है फुटपाथ के विछौने में
अभी नई नई आई है बिटिया अपने गौने में
पति नंग मछरी मारे बेटवन खिलौना बेचें
न ओढ़ना में कथरी बा न घर में कोई मोजे
सरिया सरीखा बा उनकी जवानी
हाय री ठंड तेरी जुल्मी कहानी

देश का किसनवा रोज बदहाली सा बेहाल बा
महतारी गरीबी मा पुआल पा निढाल बा
अनाज का पैसा ना सही सही मिलत बा
बेबसी के मारन हमरी गुड़ियां कहीं खिलत बा
एइसन व्यवस्था पर तू भी शैतानी
हाय री ठंड तेरी जुल्मी कहानी


७) राजदां हूं तेरी

तारीफ़ के सुर कभी निकले थे, उस हसीन वादियों से
अब उसी मरकज में, तेरे चरित्र का कीचड़ उछल रहा

महताब के मुन्तजिर में था, जब,ज़रा हिजाब खोल दो
आज घूंघट का आशियां, बड़ी किफायत से पल रहा

बचपन से जवां गुज़ार दी,जिन्ही एहसासात के खातिर
उन्हीं सपनों को रौंद, तेरे जिस्म का हर रश्म चल रहा

ऐलान है जब अर्श से, हकीक़त का जंग रोक लो
ये जान लो ,अब इस फर्श पर दीमक चमक रहा

राज़दाँ हूं तेरी, फिर भी मेरी तुझे तक फिकर नहीं
और जो हाशिए सी कैद है, उसे देख तू उछल रहा

मैं “इमरान” दिल का आइना, इश्क का हूं फ़लसफ़ा
मुझे नाज़ है अपनी कलम पर,जो पामाल संग चल रहा


८) मेरा सोचना है

मेरा सोचना है
जवानी में जो जितना पाप
कम किया रहेगा,
बुढ़ापे में उतना ही सुकून से जिएगा
ऐसा क्यों?

ऐसा तब!
पहले अधिक पापियों के
भावों को समझता हूं
बताता हूं,ध्यान से!
जब वो मौत को याद करेगा
और स्वर्ग_नरक में भरोसा होगा
तब नरक की आग से
दहसत खाएगा
कि यह सोचकर
ज़िन्दगी अब कितनी ही बची है!

सच बता रहा हूं
थर_थर कांपेगा
स्वेद झलकने लगेगा माथे पर
निद्रा स्वप्न हो जाएगी
आंखे धंसी हुई उबरने लगेगी
भूख मरने लगेगी
हो जाएंगे जंग लगी सरिया सा

वहीं दूसरी तरफ
ज़िन्दगी को इबादत व नेकियत
के साथ जीने
वाले अंत समय में भी
“गुलाब”की तरह
मुस्कुराते जीते रहेंगे

कारण स्पष्ट है!
उन्हें मृत्यु के उपरांत स्वर्ग की ऐसो आराम
व बाग़ जो दिखेंगी
जिनके नीचे दूध की नहरें बह रही होंगी
न डर और न भय
केवल व केवल सुख
दुख तो बिल्कुल नहीं
यहां भी वहां तो रहेगी ही।


९) दिल खुश हो जाता है

घनी महफिल में, गुमसुम सी बैठी, ताका जब करती है
दिल खुश हो जाता है, मुस्कान बेतहाशा जब करती है

ज़ुल्फों को उमड़ घुमड़, यूं हीं, ऐसे, जब लहराती है
बदली भी हैरान हुई, गुनगुनी गीत गाया तब करती है

अंबर सी नीली बिस्तर भी, तिरी कदमों में हो हाज़िर
मै धूप छांव और तुम, दिन रात जागा जब करती है

मन मुस्कुरा जाता है, उंगलियों की टिकिर मिकिर से
मिरी पैबंद में मुसलसल, सलीके से धागा जब करती है

काज़ल सी आंखों में, खुद का तैरना भी देखता हूं
आहिस्ता से मेरे पास, आने का इरादा जब करती है

उसकी खुशियों में गोते लगाने का मन “इमरान” का
गुनगुनी धूप में दस गुनी रीति, निभाया जब करती है


१०) जो आँखें बहुत थकी थीं

सारा दिन जगा और रहा बेगाना
जो आंखे बहुत थकी थी
चुपचाप सुन रहा तिरता हुआ तराना
जो आंखे बहुत थकी थी

जब दिन फिसल रहा था
बस आंसू ही बह रहा था
झरने सा झर रहा था आंसू पुराना
जो आंखे बहुत थकी थी

घबराए लाज भर का
सुस्ताए हर पहर का
नगमों से हम वज़ू कर बरसाए गाना
जो आंखे बहुत थकी थी

जब सांझ को उठा था
सूर्यास्त भी रुका था
हम उठकर सुन रहे थे दिनकर का तराना
जो आंखे बहुत थकी थी

इक नींद की उनींदी
आंसूओं से सारी भीगी
बस यूं ही रो रहा था अलसायों का फसाना
जो आंखे बहुत थकी थी


POST CODE:

SWARACHIT638 – उपकार करो या सत्कार करो
SWARACHIT548A – छलछलाता हुआ सौंदर्य
SWARACHIT805 – चिलबिल का पेड़
SWARACHIT493 – दीवार उस पार
SWARACHIT521 – रिश्ते निभाना
SWARACHIT429 – हाय री ठंड
SWARACHIT455 – राजदां हूं तेरी
SWARACHIT537 – मेरा सोचना है
SWARACHIT378 – दिल खुश हो जाता है
SWARACHIT880 – जो आँखें बहुत थकी थीं


Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.