बांसुरी
वनों में उगता घना हूँ
बेंत का कोमल तना हूँ
कोई जाके काट लाया
आह कैसा घात पाया
छील के चिकना हुआ हूँ
एक से कितना हुआ हूँ
मले मुझ पे तेल देखो
मनुज का यह खेल देखो
क्या हुआ जो खोखले हैं
छिद्र मुझ में कई बने हैं
पुत गया है रंग मुझ पे
छैलों का है संग मुझ से
देवता ने प्राण फूंका
कोयलों के जैसे कूका
जीवनों का गान सुन लो
बांसुरी की तान सुन लो
क्षीण होगी वायु लेकिन
छिद्र अपने माप का है
यह ध्वनि कब तक रहेगी
अंत इस आलाप का है