आत्माराम रचित ५0 दोहे (सार संग्रह)

दोहा हिंदी साहित्य की एक लोकप्रिय काव्य विधा है। आत्माराम रेवाड़ के दोहे प्रस्तुत हैं जो आपको अवश्य पसंद आएंगें।

कमठ कथा सुण आतमा, भज लीजै भगवान।
बात रति नहीं भेख में, जाचक ने कुण जान।।

रूप पद वेद वेद ते, अयन अयन रुत तीन।
रुत ते जनकगुरु भये, सदेह विदेह कीन।।

याचक बिन दाता नहीं, दीन बिना धनवान।
भले सिष रे भेटे बिन, नहीं गुरु का मान।।

अपनो से तो पर भले, अरि ले गया उठाय।
नगर अयोध्या मायने, सीता गई समाय।।

कम खाये गळगंठ करे, अति से हो अतिसार।
सगळा खावै साम्भ्रयो, सेठ रंक सहुकार।।

मेष अलि प्रिय तात की, भगिनी से है माँग।
ता के पति के नाम बिन, होगा कंचन राँग।।

माता को माता नहीं, कठ भोजन को भोग।
बिरजी बैठी डोकरी, बैरी हुयगो रोग।।

संगत कीजै संत की, संत संत की खान।
पण पंक पट पै पड़्यो, जल धोयां सुद जाण।।

भूख बिना भावे नहीं, भलां हो छपन भोग।
ओसर पे आछा लगे, बिरखा बातन लोग।।

माना दाना मंघजी, भलां हो हीरु हाथ।
बाजूड़ी जद रेवसी, भाऊ रामरख साथ।।

दया न आवै दीन पे, करे चोट पर चोट।
लाजां थारे नांव री, कठ नानी कठ पोट।।

कठै क दिन पर दिन करे, कठै रात पर रात।
समझ न आवै सांवरा, बिरली थारी बात।।

समझायो समझे नहीं, जिदी गारो जवान।
बठै चुप मन्त्र है बड़ो, ज्यूं पिक पायस जाण।।

करना तबतक जानिये, जब तक जमै दुकान।
करनी होनी हो गयी, होनी कुदरत जान।।

शैलजा पति हार सखा, वाके बदन हजार।
ता सिर धरि सुता परी, नयन चलै जलधार।।

काज रविकाल कर थक्यो, देख अनुशया लाल।
दशानन भ्रात प्रिय देहि, ता बिन नहीं निहाल।।

उलटा कर सुलटा हुवै, ज्यूं मोहर का अंक।
राम नाम रे आसरे, भये बालमीक निशंक।।

इक अचरज लख आतमा, नदी किनारे ऊभ।
मुर्दे – मुर्दे तिर रहे, जिंदे रहे हैं डूब।।

एक गत ज्ञान की सुणी, ज्यूं को जाय चुनीज।
ठामो ठाम सब ठोड़हि, उलट लगे सब चीज।।

बागबान के बाग में, भांत -भांत के फूल।
राग-द्वेष मत राखिए, हैं सब विधि अनुकूल।।

कान्हा थांरे नाम की, महिमा कही न जाय।
कनक गमावै कामनी, लादे बसन लुकाय।।

रसना कसकर राखिये, लैवै नांव कुनांव।
बात बिदावै गांव को, बात पसावै गांव।।

अधर दन्तकी ओट में, वाणी रही बसाय।
पल में ताळा तोड़ दे, पल में देत लगाय।।

नी छकनी, नी चोकनी, जेइ दुसंगी जाण।
और नहीं कछु कामकी, मुळ्डा, मुथारि ल्यान।।

आतम हीरा आत्मजा, जुगती जौरी जाण।
बेटा तो बारै भला, छीतर मडै मडाण।।

बीती रात बताइए, ऊगत कहिए भाण।
गु नासै या रु प्रगटे, पूरण गुरु पिछाण।।

सब कर्मों को समझिए, मल मूत के समान।
फेर नहीं बठ आवसी, सपने में अभिमान।।

चिड़ी मकोड़ा चुग रही, मरे मकोड़ा खाय।
आतम इक हरिरास बिन, कर भल लाख कमाय।।

मतवाला मद में फिरे, कर में लिये कृपाण।
बनबीर कद काढीयो, चनण उदै रो छाण।।

गलकटन की गलियनमें, ठाकुरजी को थान।
कबहु न दर्शन चाहिए, बहु मधु कम मधु मान।।

सांचो सांप सिदायगो, कूटै लोग लकीर।
बाट बैठ बटाऊड़ा , बणीयो कुण वजीर।।

बाल नाग मृत गोतमी, काळ कहे सुण ब्याध।
परबसु हम हैं बापुरे, चूक करम में लाध।।

जब यह जतन यकीनसूं, श्रीधर कृपा सनाथ।
जम यहीं जले यदि सितम, या राजीन मनात।।

गंडक, गुरु, गोपारी, बैद्य अरु आंच।
जैसे दर्पण देखतां, सगळी दीखे सांच।।

दिवा करन, दशरथ मरन, अग्नि वरण को नेक।
को कहिए सुत तात को, उत्तर ‘रोहित’ एक।।

रावन सुत बांध्यो कवन, का पुन, शनि की चाल।
को प्रिय है बलराम को, ‘लड़्गल’ मंगल लाल।।

काम सुत की कमान से, मारे कोय न बाण।
इनके बाण अमोघ हैं, मारे कर्ण समान।।

कामी डरपै साधसे, साध पाप ते छोर।
पाप डरे हरि नामसे, नांव सबै सिर मोर।।

दारु, दाम, दरिद्रता, दूर पड़े है जाण।
कपटी, गम, खांसी, खुशी, नैड़ा पड़े पिछाण।।

खांसी रिपु है चोर की, साधक को रिपु काम।
आलस रिपु है काम को, पाप पुंज रिपु राम।।

द्वार तिथि बालेन्दु माह, भूमि पुत्र हो वार।
हरिप्रिया हरि वेळ को, दरसन दे दातार।।

बैसाख गत शिवरातरि, मिल गये शरणानंद।
बिरला दरसण पायकै, खर खावै गुळकंद।।

मैं माया मझधार में, साधक किया सवाल।
कहिये संत बिचारकर, हरि रीझण री चाल।।

सदुपयोग समय का कर, सुख छाड़ि, दुःख सहन।
बोले संत बिचारकर, हरि पावन गति गहन।।

पांड्यो लेकर पावली, जोड़े मेळ प्रगाढ।
बिछड़ाया बिछड़े नहीं, पांड्यो कोनी याद।।

को सुहाग, को फल कहे, को कहे न मन मोर।
नारी, बेरी, आळसी, तीनो चावै बोर।।

संगत पलटै कोयला, समै सुधारे नीम।
संगत समै सुधार दै, क्या अर्जुन क्या भीम।।

ज्ञान गुरु दोउ एक है, या न बीच दीवार।
ओळा पानी एक ज्यूं, आतमराम बिचार।।

मन बिन माळा फेरता, देत पात्र बिन दान।
देख धूआं मती धूज, आग लगी है जाण।।

~ आत्माराम रेवाड़

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