मैं मजदूर
फौलादी इरादों वाला
चुटकियों में मसल देता
भारी से भारी पत्थर
चूर-चूर कर देता
पहाड़ों का अभिमान
मेरे हाथ
पिघला देते हैं लोहा
मेरी हिम्मत से
निर्माण होता है
ऊँची इमारतों का
मेरी मेहनत से
बाँध देता हूँ नदियों को
मैं मजदूर
मजबूत हौंसलों वाला
चीर कर रख देता
सागर का सीना भी
श्रम-कणों से अपने
तृप्त करता हूँ
अपनी धरा को
मेरे लिए
क्या धूप ? क्या छाँव ?
और मौसम ही क्या ?
मैं मजदूर
जानता ही नहीं थकना
पर क्या करूँ
आज मैं लाचार हूँ
विवश हूँ
भूख से तड़पते बच्चों
के लिए
घर लौटने को
मजबूर हूँ
चल पड़ा हूँ मैं
नंगे पाँवों से
अपने कुटुम्ब के साथ
मेरे भाग्य में बदा है
मीलों लम्बा रास्ता
हज़ारों दर्द लिए
लौट रहा हूँ
आज मेरा स्वाभिमान
आहत है
मेरे पैर छालों से
अट रहे है
जिनके निशां
सदियों तक रहेंगे
देश के सीने पर
मेरी प्रार्थना है
यूँ मेरी मजबूरियों का
तमाशा ना बनाओ
सियासत की गलियों में
मुझे निलाम न करो
मेरे घावों को
मरहम न दे सको तो
उन्हें कुरेदो भी मत
मैं पहले से
टूट चुका हूँ
मुझे यूँ और मत तोड़ो
मैं मजदूर
मेरा लहू न निचोड़ो।
~ पारस शर्मा मसखरा