दीवारें दूरियाँ बढ़ाती हैं, मन में आशंकाओं का निर्माण इनके कारण हो जाता है। कलमकार इमरान संभलशाही के विचार इस कविता में व्यक्त हैं। हम सभी की अपने मन में उठने वाली हर दीवार को ढहाना चाहिए जिनसे दूरियों और आशंकाओं का जन्म होता हो।
दीवार भी बन गई
पुताई भी हो गई
और तो और चित्रकला भी सज गई
हमने सुना कि
किसी के आने की ख़बर हैवो कौन है?
शासक ही जाने!
हम जनता, थोड़ा दीवार उस पार झांक ले
तो सिद्धि की प्राप्ति संभव होएक यथार्थ ही है
उस पार
मरियल छौना दुग्ध पीड़ित बेचैन होगा
कोई बाप प्यासा होगा
मां धंसी आंखों में छतराई होगी
बिटिया बालों में ज़ुं खातिर
नाखूनों से बालों में खरबोट रही होगी
अम्मा की अम्मा दीवार को ताक
विचार कर रही होगी
इसी सहारे मड़य्या बना लूं क्या?टूटे-फूटे कांच, बिखरे कूड़े करकट
सूखी-गीली तालाब
महुआ व आम के पेड़ों संग
कंटीले बबूल
गेंदे के फूल व गुड़हल
कुछेक गुलाब भी शायद
नहीं तो मुश्किल ही है
गाएं, भैंसे व अन्य पशुएं
कमजोर हड्डियां
आंचलिक सारी दुश्वारियां
कुछ दिन बाद
अवश्य सोचेंगे की
दीवार उस पार आख़िर
जा रहा है किसका काफिलाजब कभी काफिला गुजरेगा
तो उसे
हमें देखने से क्यो वंचित कर दिया गया?
क्यो मुझे ढक दिया गया?
हम इंसान नहीं क्या?
सबसे बड़ी बात, हम भारतीय भी नहीं क्या?सच तो यही है कि
शासकों की खिसिया नीपोर
चाल चरित्र ऐसा ही था, है और रहेगा भी
आत्ममुग्ध, स्वार्थ से जकड़े
रंगे सियार की तरह!
और कुछ मुझे नहीं है कहना!~ इमरान सम्भलशाही
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