सब बिक गए बाबू

सब बिक गए बाबू

समाज में फैली एक बुराई है- भ्रष्टाचार। कलमकार राजेश्वर प्रसाद जी की यह कविता पढ़ें जिसमें उन्होंने बहुत ही साधारण लहजे में एक सांकेतिक उदाहरण के माध्यम से अपने विचार वयक्त किए हैं।

मैंने देखा
एक बूढा़ कुम्हार को
दिवाली की शाम
डलिया भर
मूर्ति लिए बैठा है
चारों ओर
लोग घेरे खड़े हैं।
मैंने किनारे से देखा
डलिया में हाथ जोड़े मंत्री
भाषण देते नेता
पढा़ते हुए शिक्षक
बहस करता हूँ वकील
डंडा घूमाते पुलिस अधिकारी
इलाज करते चिकित्सक
अदालत में बैठा न्यायधीश
दफ्तर में उघंता सचिव
घूमकर लौटा
देखा एक ही
मूर्ति बची थी
मैंने उस बूढ़े पूछा-
मूर्तियां?
बूढ़े ने कहा-
सब बिक गये बाबू
सब बिक गये
मैंने पूछा-
वह न्यायधीश?
वह बिक गया
वह मंत्री?
वह भी बिक गया
वह सचिव?
वह भी बिक गया
वह पुलिस अधिकारी?
वह भी बिक गया
वह चिकित्सक?
वह भी बिक गया
वह शिक्षक?
वह भी बिक गया बाबू
आगे पूछने की हिम्मत न हुई
मैंने कहा-
ये गांधीजी के तीन बंदर?
नहीं बिक सके बाबू

~ राजेश्वर प्रसाद

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