ये साजिश है या कि कुदरत का कहर है
सांसे थम रहीं सुना कि हवाओं में ज़हर है
इस सदी के इंसां ने कुदरत को यूँ छेडा
आलम ये कि आदमी बंद घर के अंदर है
उसकी भी सोचिए जिसकी बेबसी का सफ़र है
भूख है प्यास है और मीलों दूर घर है
जिंदगी की हर तपिश मुस्कुराकर झेलता
इक हौसला ही उसका चिराग ए रहगुज़र है
खुली आँखों में सपना पाले फिरे शहर दर शहर है
बहार की ख्वाहिश में खिज़ा अब हमसफ़र है
क्या खोया क्या पाया देखने की फुर्सत नहीं
बहुत दूर है मंजिल और मुश्किल डगर है
आगाह करो उसे वो खतरे से बेख़बर है
आंखें उसकी पथरीली सीने में नश्तर है
सब्र रखकर जो रूक जाता पल दो पल
दौर यह लम्बा नहीं मानो कि मुख्तसर है
तुम भी सोचो मुद्दा ए नफ़रत नागवार अगर है
अब तो सारी उम्मीदें मुहब्बत के यकीं पर है
इंसानियत इबादत बने सारे जहान की
फ़रिश्ता आसमान में नहीं यहीं कहीं जमीं पर है
~ तारिका सिंह ‘तरु’