पटरियों पे रक्तरंजित रोटियाँ,
रोटियों संग पड़ी थीं बोटियाँ।
थक गये क़दम मुसाफ़िरों के,
झपकियाँ पटरियों पे सुला गईं।
मुफ़लिसी फिर तितर-बितर हुई,
घर पहुँचने की आरज़ू कुचल गई।
चीत्कार चौखटें कई करने लगीं।
दर्द के दामन में वीरानियां सोने लगीं।
वो लौट कर फिर ना आयेंगे कभी,
ये जानकर दीवारें दर्द से दरकने लगीं।
बवंडर आया धरती भी डोलने लगी,
छा गईं फज़ा में यकायक ख़ामोशियाँ।
कलम को फिर दर्द बयां करना पड़ा,
अश्क़ को भी ज़ार-ज़ार रोना पड़ा।
राजनीति में सरगर्मियाँ बढ़ने लगी,
लाल रोटियों की करचनें भू में दबती गईं।
रवायतें इक-इक करके सारी निभती गईं,
मजबूर सल्तनत भी समय के हाथों हुई।
वक़्त बदनसीब मंज़र यूँ ही दिखाता रहा,
क़ुसूर किसका कहें ये समझ आता नहीं।
वबा बेरहम हुई कहर का कोहराम मचा गई।
ग़रीबी अभिशाप है ये हकीकत फिर दिखला गई।
~ वंदना मोहन दुबे