निराशा कभी-कभी हमारे मन पर हावी हो जाती है और हमें नई राह दिखाई ही नहीं देती है। कलमकार मुकेश ऋषि वर्मा की यह कविता पढें जो कहती है कि टूटकर बिखर गया।
मैं टूटकर बिखर सा गया हूँ
मैं रेत सा फिसल सा गया हूँमांझी के भरोसे बैठा हूँ
लेकर कश्ती बीच दरिया मेंमंजिल मेरी गुम हो गई
मेरे चेहरे की रौनक खो गयी
जिंदगी की कशमकश मेंन सुकून, न चैन मिलता है
बड़ी बेबसी भरी है ज़िन्दगी मेंडर है मुझे खुद से खुद का
मैं कातिल बन न जाऊं
कहीं फंस न जाऊं गुनाहों मेंमहफूज नहीं मेरा वक्त
खुदा क्यों हुआ इतना सख्तमैं टूटकर बिखर सा गया हूँ
मैं रेत सा फिसल सा गया हूँ~ मुकेश कुमार ऋषि वर्मा