रंग बदलती होली

रंग बदलती होली

वक्त के साथ-साथ त्यौहार मनाने के तरीके भी बदल रहे हैं। इसी बात को कलमकार रूपेन्द्र गौर ने एक व्यंगात्मक कविता में होली के त्यौहार को संबोधित करते हुए लिखा है।

ना चेहरे का अपने रंग छुटा रहा हूँ,
ना कपड़ों के अपने  दाग हटा रहा हूँ।

सच तो ये है कि मैं होली के दिन से ही,
व्हाट्सएप के मेसेजेस मिटा रहा हूँ।

अब नहीं घूमा करते हुरियारे गली गली,
अपने घर के  गुजिये खुद ही खुटा रहा हूँ।

खा ली थी होली के दिन मावे की मिठाई,
उस एक पीस को मैं अब तक पचा रहा हूँ।

चली गई थी आँखों में उड़ती हुई गुलाल,
उसका खामियाजा मैं अब तक उठा रहा हूँ।

रंगनुमा कर डाला मौसम मोबाइल ने मेरे,
रंगों और पिचकारी का खर्चा बचा रहा हूँ।

बदला लेना रंगों का हो गया कितना आसान,
दे दनादन मोबाइल पर हुड़दंग मचा रहा हूँ।

सच तो  कुछ और ही है रंग नहीं खेलने का,
रह रहकर कोरोना का बहाना बना रहा हूँ।

फोटो एक पिचकारी वाली भेजकर ग्रुपों में,
घर बैठे सब दोस्तों को रंगों में डुबा रहा हूँ।

~ रूपेन्द्र गौर

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