समाज के रंग

समाज के रंग

समाज में ही हम पलते बढ़ते हैं, बहुत कुछ सीखने का मौका भी पाते हैं। किंतु कभी-कभी समाज आपको ताने सुनाता है और उंगली भी उठाता है, ऐसा ही अनुभव समीक्षा ने अपनी कविता में साझा किया है।

एक आगाज़ की थी मैंने कभी, खुद को बदलने की
इस समाज के रंग में ढलने की
एक ख्वाहिश थी खुद से बाहर निकलने का
एक कोशिश थी खुद की आदतों से उबरने की
अपनी बेरुखी छोड़, तेरी ओर बढ़ने की
उस वक्त जिंदगी में बहुत से बदलाव थें
जीवन रंगमंच के अलग ही पड़ाव थें
तब शायद तुम बदलने लगे थे।

सब हैरान थे मेरे बर्ताव से,
मैं थक चुकी थी, समाज के झूठे लगाव से
फिर यही समाज अजीब से प्रश्न उठता था?
“बहुत खाली वक्त है तुम्हारे पास”
कहकर अहसास दिलाता था; कि मेरी बेरुखी ही अच्छी थी
मेरी नहीं समाज की नियत कच्ची थी
पर फितरत मेरी सच्ची थी।
अब फर्क नहीं पड़ता,
समाज ने खो दिया मुझे बुरा कहने वाली आवाज
हमने भी छोड़ दिया,
लोगों को अपना कह उनकी बातें सहने का अंदाज।

अब मैं खुद से खुश और समाज खफा हैं
अपना भी आत्मसम्मान है,
बिना दिल लगाए हम तो यूं ही बेवफा है।

~ समीक्षा सिंह

हिन्दी बोल इंडिया के फेसबुक पेज़ पर भी कलमकार की इस प्रस्तुति को पोस्ट किया गया है।
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