प्रेम और विरह अक्सर साथ-साथ होते हैं जैसे सिक्के के दो पहलू। कलमकार साक्षी सांकृत्यायन की यह कविता पढें जो विरह की दशा संबोधित करती है।
अपने प्रेम का रंग लगाकर जबसे मुझको चला गया
वो सावंरिया कृष्ण कन्हैया अपने रंग में रमा गया।सुध-बुध विसरी मैं बांवरिया प्रेम रंग जो चढ़ा गया
मुझे रमा कर प्रेम रंग में ना जाने फिर कहाँ गया।बिरहन सी मैं इंतज़ार में उसका भी नहीं पता लिया
अपने प्रेम का रंग लगाकर कृष्ण कन्हैया चला गया।कृष्ण प्रेम में हुई बाँवरी अपने आप को लूटा दिया
प्रेम रंग में मैंने कान्हा सांवला रंग तेरा लगा लिया।प्रेम रंग मुझे लगाके जबसे वो बांवरिया चला गया
ढूढ़ती हूँ मैं प्रेम गलिन में मन में उसको बसा लिया।~ साक्षी सांकृत्यायन