रंग बिरंगे बादल, कहाँ जा रहे हो
नीली, काली, श्वेत चादर ओढ़े
किसे बहला रहे हो
हाथी, पेड़, चेहरे, वाहन जैसी
अनेकों आकृतियाँ बनकर
हमें फुसला रहे हो
ठहरने की आदत है नहीं
कभी धीमी, कभी तीव्र गति से
सतत चलते जा रहे हो
विशाल गगन में विचरण करते
धूप, सूरज तो कभी चांद को
क्यों छिपाते रहे हो
रिमझिम तो कहीं झम-झम बरसते
प्रकृति खिलखिलाती होकर जलमग्न
तुम तो यूँ ही इठला रहे हो
काले बादल! बरसे तुम बहुत यहाँ
तपती धरती, मरूस्थल की पुकार
क्यों ठुकरा रहे हो
मरुभूमि में भी धर काला रूप
शीतलता, जल, हरियाली देने
क्यो नहीं जा रहे हो
जल से बनते, जल बन जाते
सबके जीवन में हो उपयोगी
क्यों नहीं मान रहे हो