कोरोना कह रहा-मरो ना,
विकास की अंधी रफ्तार के आगे,
कहां सोच पाया था इंसान
कि जीवन का मतलब बारुद व जैविक हथियार नहीं होता,
न ही इंसान से नफरत,
न उच्च, न नीच,
क्योंकि कोरोना ने सबको बना दिया है-अछूत व नीच
और लोग मांग रहे जीवन की भीख,
फिर भी नहीं मिल पा रही भीख!
कितना जीवन है विवश
कि मंदिर, मस्जिद व चर्च भी चुप हैं
लगता है कि देवता एक छलावा हैं
और आदमी सच,
चाहे व गलत हो या सही,
पर, गलत का परिणाम है कोरोना,
दुनिया पर राज करने की ललक,
कितना बौना बना दिया है इंसान को,
कि अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा है चारो तरफ,
और लगता है काश कोई खबर लाता
कि अब कोई कोरोना से नहीं मरेगा
और सबके चेहरे पर छा जाती
काश, वैसी मुस्कान
जो कभी-कभी दिख जाती है
प्रेमी प्रेमिकाओं के चेहरे पर,
हम वैसी मुस्कान देखना चाहते हैं
हर इंसान के चेहरे पर
यह कहते हुए-जाओ कोरोना जाओ,
लौटकर न आना फिर,
और इंसान को पटकनी देने का सपना,
मत देखना
वरना, बहुत बुरा होगा!
~ डॉ. हरेराम सिंह
मेरी कविता को आपने जगह दी.दहे दिल से शुक्रिया.