जिस तरह सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी प्रकार इंसान भी गुण और अवगुण की खान है। कभी वह अच्छा तो कभी बुरा प्रतीत होता है। ऐसा ही कुछ भवदीप ने अपनी कविता ‘खोटा सिक्का’ में लिखा है।
जीतना अच्छा हूँ उससे कई ज्यादा बुरा भी हूँ मैं
मोम सा मुलायम तो हिरे सा कठोर भी हूँ मैं
कभी ग़ज़ल का अन्तरा तो
कभी किसी कहानी का क़िरदार हूँ मैं
कभी किसी के स्वाद का नमक तो
कभी किसी की डाइबिटीज हूँ मैं
वैसे कूट-कूट के भरी है नास्तिकता तो
लैकिन माँ को लेकर बड़ा आस्तिक हूँ मैं
दिखने को बड़ा खुश मिजाज हूँ मैं
अन्दर तक कोई झाँके तो पता चले कितना वीरान हूँ मैं
घर का जलता चिराग हूँ मैं
दोस्तों का कुबेर तो कभी उनका काल हूँ मैं
सब कहतें है मुझे खोटा सिक्का
मेरी माँ से पुछो “कितना खरा हूँ मैं”
~ भवदीप