दीवारें नफरतों की गिरा दीजिए,
किसी रोते हुए को हसा दीजिए।
जीना ना हो जाये दूभर कहीं,
जख्मों को ना इतनी हवा दीजिए।
मुसीबत में मदद का हाथ बढाकर,
उनके दुखों को थोड़ा गला दीजिए।
वह अभागा रातभर सोया नहीं,
उसे पेट भर खाना खिला दीजिए।
हो चली है हवा भीजहरीली सी,
प्रकृति नाशकों को ये बता दीजिए।
नासूर न बन जाये कहीं ये घाव,
जख्मों पर जरा मरहम लगा दीजिए।
कुछ दिनों तक घरों में ही बने रहें,
एकता से इस मर्ज को हरा दीजिए।
अपने दोनों हाथ धोने के बाद,
मेरे हाथों को भी धुला दीजिए।
कब मिट जाये आदमी का अस्तित्व,
दिल से मनमुटाव को मिटा दीजिए।
महामारी से थोड़ा सीख ले लें,
उन लोगों को थोड़ा जगा दीजिए।
~ रूपेन्द्र गौर