ऋषभ तिवारी की एक कविता – डूबती शाम …
आजकल के इंसान की फितरत और कड़वे सच का जिक्र करती हुई कुछ पंक्तियाँ।
इस तरह बादलों ने जमी को घेरा न था
हर सांस में डूबा शाम कहीं सबेरा न था
यूँ तो लोग निशाने पर रखा करते थे मुझे
हर किसी को अपना समझा कोई मेरा न था
जब झूठ सरे बाज़ार बिके सच्चाई नज़र नहीं आती
गुनहगार मान ही लो तो फिर अच्छाई नज़र नहीं आती
ऐसा मत समझ कोशिश न कि बदलने की हमने
साहब बदलने पर खुद की परछाईं नज़र नहीं आती
वक्त के साथ न बदले वो लोग निराले होते हैं
हर कोई अच्छा है भ्रांति ये पाले होते हैं
चलो माना हम अपनी हार स्वीकार करें भी ऋषि
पर साथ चलने के निशां वाले छाले तो होते है
~ ॠषभ तिवारी ‘ॠषि’