चाह में शाम-ओ-सहर

चाह में शाम-ओ-सहर

इरफान आब्दी मांटवी गाजीपुरी की एक गजल पढ़ते हैं और उनकी कलम के भावों पर अपनी प्रतिक्रिया दें।

उजलतों में उस ने हम से कह दिया बे-फ़िक्र हूँ
पर हमारी चाह में शाम-ओ-सहर रोते रहे

अश्क मेरी ख़ैरियत लेने की ख़ातिर दम-ब-दम
अपना साहिल छोड़ कर रुख़्सार पर बहते रहे

क्या अभी भी इश्क़ के क़ाबिल नहीं समझे गए
जितने ग़म तू ने दिए हँस हँस के हम सहते रहे

फूल तू भी छोड़ दे ख़ुशबू उड़ाना बाग़ में
ख़ार तेरे वास्ते ज़ख़्मी मुझे करते रहे

बे-हिसी तुझ से मुझे शिकवा हमेशा से रहा
ग़ैर के टुकड़ों पे क्यूँ अहल-ए-क़लम पलते रहे

ढूँढ पाता ही नहीं मुझ को मगर उस के लिए
ख़ुश-नसीबी थी ज़मीं पर नक़्श-ए-पा छपते रहे

ऐ मोहब्बत इम्तिहाँ लेना हमारा छोड़ दे
फ़ेल होते हम गए तुझ को बुरा कहते रहे

माँ अगर घर में रहे घर भी मिरा जन्नत लगे
फिर सुकूँ उतना मिला जैसे यहीं रहते रहे

वास्ता मैं इस हुकूमत से भला कैसे रखूँ
ख़ुद-कुशी कर ली किसानों ने जवाँ मरते रहे

बीज हम ने बो दिया बंजर ज़मीं देखा नहीं
फिर हुकूमत से गिला शिकवे सभी करते रहे

क़त्ल उस ने कर दिया मुझ को मगर अच्छा हुआ
ख़ून के क़तरे उसी के हाथ से लिपटे रहे

~ इरफान आब्दी मांटवी

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