इंसान वक्त के साथ खुद को ढाल लेता है किंतु सद्बुद्धि बनी रहे यह नहीं कहा जा सकता है। कलमकार दीपिका राज बंजारा ने अपनी इस कविता में कलयुग में बिखरते परिवार की चर्चा की है।
साल बदला पर क्यों कोई बदलाव नहीं दिखता हैं,
अपनों के बीच अब क्यों वो अपनापन नहीं दिखता हैं।
आज भी बुड्ढे माँ-बाप किसी एक कमरे मे चुप हैं,
क्योंकि हम तो आज भी मोबइल में गुम हैं।
हम सोशल मीडिया पर एक अनजान से भी बात कर रहे हैं,
और अपने भाई को ही अपना दुश्मन समझ रहे हैं।
अब उस छोटी बहन ने पीहर आना छोड़ दिया हैं,
क्योंकि अब ये घर मेरा हैं कहकर भाभी ने मुँह मोड़ दिया हैं।
अब हम मे वो पहले जैसा प्यार नहीं दिखता,
साल बदला पर क्यों कोई बदलाव नहीं दिखता।
हम मे तो आज भी अहंकार भरा पड़ा हैं,
इसीलिए एक घर मे आज तीन चूल्हो पर खाना पका हैं।
अब तो वो पुरानी यादें यादों मे धुम्मिल हो गई हैं,
क्योंकि हमारे बीच बटवारे की लक़ीर जो खींच दी गई हैं।
हम आज बड़ी-बड़ी पार्टियों मे जाकर खुश हो रहे हैं,
पर हमारे माँ-बाप तो आज भी अकेले रो रहे हैं।
हर दुःख मे सिर्फ अपनों का साथ होता हैं,
पर ये तो कलयुग हैं यहाँ तो सिर्फ दिखावा होता हैं।
साल बदलने के इतने सालो बाद भी कोई बदलाव नहीं हैं,
क्योंकि राम तो छोडो हम मे तो रावण जैसे भी संस्कार नहीं हैं।
~ दीपिका राज बंजारा