जो उड़ चलते हैं दूर गाँव

जो उड़ चलते हैं दूर गाँव

जो उड़ चलते हैं दूर गाँव,
ऋतुवों के प्रभाव से बचने को,
कई बार उड़ते भी हैं,
थकते भी हैं,
और कुम्लाये से
एक आस दिल में जगाये होते हैं,
परों  का बोझ  उठाये  से
उनकी नन्हे फेफड़ें
सांस बटोरने को
धौकनी की तरह चलते हैं,
शायद वायु का दबाव बढ़ा सा है
बहुत मुश्किलों से
चाँद साँसे संभाले कुछ समय अच्छे बिताने को,
प्रसव, प्रेम की पीड़ा मिटाने को,
कुछ पंछी
जो उड़ चलते हैं दूर गाँव

धीरे धीरे
यथार्त-परक हो विचार के प्रवाह को
घर तक पहुँचाते हैं,
आस्वाशन के झूठ से लदे देह को
विचार के बिन्दुओ से जोड़ते
खुद को सांत्वना का कम्बल ओढ़ाते हैं,
और परम आनंद की व्याख्या में बीत जाते हैं,
उनका वो नीड़
जिसमे पिछले प्रसव में
उसने अपने नन्हे बच्चों को
उड़ना सिखाया था
उनके जाने के बाद वीरान लगता है,
पर कभी उनके ह्रदय में जीवित रहने की भावना
उन्हें दूर उड़ा  ले जाती है,
वायु मार्ग में तैरते
उनकी भावनाएं उनके
जीवित रहने के संघर्ष  को प्रेरणा देती है
और एक मौसम के बीतने के बाद फिर प्रसव की बेला में
नीड का निर्माण वो परिंदे फिर करते हैं
जो परिंदे  लौट के आते हैं

शहंशाह गुप्ता “विराट”

Leave a Reply


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.