दुनियाँ से ज़ुदा हो जाऊँ

कहते हैं कि दिल का दर्द दूसरों से साझा कर देने पर हल्का/कम हो जाता है। हम सभी ने यह महसूस किया होगा कि जब दिल बेचैन हो तो अपने मन की बात हम किसी को बताना चाहते हैं और कभी-कभी कुछ सूझता ही नहीं है। कलमकार साक्षी सांस्कृत्यायन की यह रचना पढें, इसमें ऐसी ही दशा को अभिव्यक्त किया गया है।

दुनियाँ से ज़ुदा हो जाऊँ मैं या ख़ुद को कहीं छुपाऊँ मैं
बर्दाश्त नहीं हो रहा है अब किसे दिलका दर्द दिखाऊँ मैं।

मन अंदर से ही टूट रहा मन को कैसे समझाऊँ मैं
मन व्याकुल और विचलित भी है किसे मन की व्यथा सुनाऊँ मैं।

ये दिल की चोट लगी गहरी इस चोट को किसे दिखाऊँ मैं
कोई अपना ही तो नहीं रहा अपनापन किसे जताऊँ मैं।

थक गईं हूँ लोगों की सुनकर अब इतना सह ना पाऊँ मैं
कब तक ऐसे यूँ अकेले ही रिश्ता अपनों से निभाऊँ मैं।

सब ख़ुशी हैं अपने जीवन में क्यों दुःख का कारण बन जाऊँ मैं
काश कि कुछ ऐसा होता कभी लौटके फ़िर ना आऊँ मैं।

अब समय आ गया निर्णय का हिम्मत थोड़ी सी जुटाऊँ मैं
गर कोई दुःखी है मेरे होने से उन सबसे दूर हो जाऊँ मैं।

इस दिल की वज़ह से फ़िर न कहीं गलती कोई दोहराऊँ मैं
दिल नहीं समझता है कुछ भी कितना दिल को समझाऊँ मैं।

बेचैन रहूँगी हर पल ही कितना भी दूर हो जाऊँ मैं
बेचैनी का ये आलम भी कैसे ख़ुद को समझाऊँ मैं।

सारे दर्दों को पन्नों में कविता का रूप लिख जाऊँ मैं
जब पढ़े कोई इन पन्नों को ‘साक्षी’ इसकी बन जाऊँ मैं।

~ साक्षी सांकृत्यायन

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