एक बुराई- छोड़ दूं

समाज में अनेक बुराईयां भी हैं जिनका शिकार सभी बनते हैं और उससे लड़ने का प्रयास हर इंसान करता है। इन सबसे लड़ते हुए जब व्यक्ति का हौसला टूटने सा लगता है तो वह यह लड़ाई छोड़ने की बात सोचता है। कलमकार प्रीति शर्मा ‘असीम’ ने इसी संघर्ष को अपनी कविता में संबोधित किया है।

मैं किस-किस से लडूँगा।
इस समाज के,
उस हिस्से से लडूं
जिसमें औरत
और मर्द के लिए
अलग-अलग मापदंड हैं।
जहां औरत आज भी,
अपनी पहचान की पबंध है।
बेटियां काबिल
होकर भी,
बाप पर बोझ हैं।
बेटी बचाओ की आड़ में,
बेटी न हो,
आज भी यहीं सोच है।
बलात्कारी की पैरवी में,
झूठी गवाही चलती है।
झूठी शान के लिए,
प्यार की बलिबेदी पर,
आज भी बेटियां चढ़ती हैं।

मैं किस-किस से लडूँगा।
समाज के,
उस हिस्से से,
उन औरतों से लडूं।
जो अपनी आजादी का,
नाजायज फायदा उठाती हैं।
रिश्तो को,
तार-तार कर जाती हैं।
कानूनी दांव-पेचों से,
पुरुषों को हराती हैं।
अपने फायदे,
निकालने के लिए दहेज,
बलात्कार,
अत्याचार के झूठे
मुकदमे करती है।

मैं किस-किस से लडूँगा।
या समाज की,
उस सोच से लडूं।
जहां कोई बोलता ही नहीं
समाज क्या कहेगा?
प्रताड़ना सहते रहते।
वो औरत हो या मर्द
समाज के डर से,
जब कह नहीं पायेंगा।
अपने हालातों से,
कैसे निकल पायेंगा।
खुद को खुद में,
दफन कर जायेंगा।

मैं किस किस से लडूँगा।
समाज के,
उस हिस्से से लडूं।
हिन्दू-मुस्लिम,
भेदभाव से भरे ,
आरक्षण के अंधकार से।
किस से कहूँ
ना नाश करें।
इन्सानियत पर,
भरोसा करें।
समाज में,
किस-किस से लडूं।
जहां जुबाने हैं
सबकी दो धारी।
किसी के दोस्त नहीं,
दिलों में है दुश्मनी भरी।
हर एक के मुंह पर,
उसके जैसे हो जाते है।
हम क्यों बुरे बने।
यह कह जाते है।
मैं क्या-क्या कहूं?

मैं किस किस से लडूं।
उस प्रशासन से लडूं।
जिसमें देश की,
अहमियत से बड़ी,
सियासत हो जाती है
वोट को लेने के लिए,
चोर बाजारी हो जाती है।
उन स्कूलों से लडूं ,
जिनमें मां सरस्वती की,
नीलामी हो जाती है।
उन लोगों से लडूं।
जो चंद पैसों के लिए,
जिंदगी में मिलावट कर जाती है।
या फिर
अपनी सोच से लडूं।
छोड़ दूं।
यह सोच!
क्यों बार-बार
मेरी सोच पर,
भारी हो जाती है।

~ प्रीति शर्मा “असीम”

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Comments

One response to “एक बुराई- छोड़ दूं”

  1. प्रीति शर्मा। Avatar
    प्रीति शर्मा।

    बहुत-बहुत धन्यवाद जी।

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