हे माँ! आशीष देना

हे माँ! आशीष देना

सतत कर्मशील और आशावादी बनकर ही रहना चाहिए, ऐसा करने में हम ईश्वर का आशीर्वाद अवश्य चाहेंगे। कलमकार उमा पाटनी ने एक रचना साझा की है जो उनकी प्रकाशित पुस्तक के पहले पृष्ठ का अंश हैं।

आसमां में घिर गये हैं
अब तो देखो स्वप्न मेरे
अब कलम की स्याही से
मस्तक सजाना चाहती हूँ
कोमल हृदय की सृदुढ़
पगडंडियों में चलकर
मैं अधरों का साथ लिए
कुछ गीत गुनगुनाना चाहती हूँ
निन्दा के दूषित गान कहीं
तो शख़्स यहाँ बेईमान सही
सत्य को परोसे प्रेम की थाली में
उनकी भूख आज़माना चाहती हूँ
शत्रु यूँ तो भी बढ़ेंगे
व्यर्थ ज़िद में भी अड़ेंगे
निष्कपट, निस्वार्थ बन
जीत का डंका बजाती
उनकी नज़रों में ऐसे
हार जाना चाहती हूँ
ताक़तों पर नाज था जिन
सब फिसलती हाथ से अब
उम्र की गिनती बढ़ी तो
झुर्रियाँ हंसती हैं मिलकर
जो तमन्ना दिल के भीतर
छटपटाती रही पल-पल
ख़ाक़ होने से पहले
आशाओं के परिन्दे
उड़ाना चाहती हूँ
आंसुओं से शब्द छिनने
खुशियों संग ये खेल करते
व्यंग्य चुभते ही कहाँ हैं
प्रेरणा से स्वर हैं खिलते
अब तो हर एक भाव संग
कविता बनाना चाहती हूँ
अब भी पहुँची जो नहीं मैं
क्रोध, ईर्ष्या से परे
हे माँ! आशीष देना
थक न जायें पग मेरे
मैं सत्य की झिलमिलाती
लौ जलाना चाहती हूँ
भावनाओं की क्यारियों में
माली बन बीज बो रही हूँ
अब तक जो थी जो रही हूँ
कुछ अमानत जोड़ ली है
चोर कोई क्या चुराये
बिन टिकट के मैं तो “अवनि”
सबसे दूर यथार्थ के धरातल पर
कल्पनाओं के पार जाना चाहती हूँ

~ उमा पाटनी ‘अवनि’

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