हमारे पास तो शिकायत और तारीफ का पिटारा होता ही है, यदि जिंदगी आप से मिले तो आप उससे क्या बातें करेंगे? कलमकार सौरभ अज्ञानी इस कविता में जिंदगी से कुछ सवाल पूछ रहे हैं और अपना तर्क भी रख रह हैं।
ए ज़िंदगी तू है कहाँ
ढूँढूँ कहाँ तुझको बता
तू खो गई या मर गई
दिखती नहीं मुझको कहीं
पैदा हुआ जीने तुझे
लेकिन ये क्या संभव हुआ?
तुझसे हुआ कब रु बरु
ये याद आता क्यों नहीं
चल शुरू से देखते हैं
क्या भेंट हुई थी कभी
आया यहाँ अँधियार से
उजला लगा संसार ये
जब हुआ पैरों खड़ा
तब पीठ पर बोझा लदा
वो बोझ यूं बढ़ता गया
जो आज तक उतरा नहीं
उस बोझ संग जो खोज थी
सबने कहा वो तू ही थीसबने कहा पैसा कमाओ
हम भी लगे पैसा कमाने
ऐसा कमाया धन की सबकुछ
हाथ से जाने लगा
माँ का आँचल छूट गया
बाप की डाँटें भी गईं
भाई का वो साथ छूटा
बहन की तकरार भी
घर छूटा, गलियाँ छूटीं, सड़कें छूटीं
छूट गई वो साथियों की गोल भी
हम चल दिये थे तलाश मे
तुझसे मिलन की आस मे
अब लग रहा जो छूट गया
तू रह रही थी वहीं कहीं~ सौरभ अज्ञानी
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