प्रलय

प्रलय

अस्वमेध को राहु ने घेरा
सबके मन में संशय का डेरा
विचलित है क्यों आज पथिक मन
यह दृश्य भयावह घोर अंधेरा

असमंजस की कैसी दशा यह
कैसा है यह सुप्तावस्था
व्याकुलता सबकी व्याकुल होकर
कर रही पार अब परम पराकाष्ठा

अर्चन विघ्नों का कैसा यह कालखंड
प्रतिकूलता प्रतिछन कर रही समन्वय
मानो पर गई हो कूदृष्टि शनि की
आने वाला हो घोर प्रलय

कारण इस व्यथा का अज्ञात क्यों
क्यों अनभिज्ञ सब रहे तथ्य से
वास्तविकता दरकिनार कर
क्यों रहे फेरते मुंह सत्य से

कालचक्र की लीला देखो
किया उजागर कटु सत्य को
सारी अवहेलनाएँ मिलकर भी
छिपा न पाई एक मिथ्य को

सन्नाटों की गूंज सुनो
किस ओर इशारा करता है
खुला तीसरा नेत्र काल का
देखो वो तांडव करता है

प्रकृति से खिलवाड़ मानवों
देखो पड़ा कितना भारी है
बहुत कर लिया शोषण तुमने
अब आई बारी तुम्हारी है

~ आनंद सिंह

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