कितनी बुरी है मधुशाला?

कितनी बुरी है मधुशाला?

कलमकार भरत कुमार दीक्षित रचित व्यंग्य और हास्य पर आधारित इन रचनाओं का उद्देश्य किसी को आहत करना नही है, महज़ इसे मनोरंजन के लिए पढ़े।

१.) खुली हुई है मधुशाला

बन्द पड़ी है पाठशालाएँ, खुली हुई है मधुशाला।
टूटा सब्र का बाँध कुछ ऐसे, दूरियाँ बहुत नज़दीक हुई
जनता का सैलाब उमड़कर, मधुशाला में सिमट गया
एक नज़र हैं पुलिस चचा पर, एक है ठेका मालिक पर
एक हाथ से बैग है थामे, एक हवा में, मैं भी हूँ।
आया नम्बर, मिलीं ज्यों मदिरा, भविष्य निधि भी साथ लिया
वापस यूँ कुछ ऐसे लौटे, बड़ा मैदान मार लिया!
मुस्कान गई जो चेहरे की थी, वापस फिर से आ गई
कोरोना की ऐसी की तैसी, जज्बा फिर से जाग गया
घर घुसते विनम्र हो गए, शिष्टाचारी बर्ताव सुरु
सोच फिर से सटीक हो गई, खुल गई सारी बंद इंद्रिया
घुसे जो घर, कुछ यूँ सोच के, ब्याह लाएँ है मधुशाला
ब्याह लाए हो….
बंद पड़ी है पाठशालाएँ, खुली हुई है मधुशाला


२.) मधुशाला कैसा स्थान है?

मधुशाला भी वो स्थान है,
जहाँ मिलता सम्मान है, जहाँ होता अपमान है।
कही बहुत ख़ुशियाँ लाता है, कही बहाता ग़म के सागर,
कही किसी को बेड में सुलाता, कही गटर में ये लिटाता
मात्रा कितनी कौन है लेता, उसी पे सारा खेल है निर्भर
हुई अधिक तो बना सिकंन्दर, दिखेंगे उसको फिर सब बंदर।
बना सयाना घूमेगा वो, बेवजह किसी को चूमेगा वो
तू है मेरा जिगरी यार, तेरे बिना मैं क्या हूँ यार
बस भाई तू बोल के देख, तू जो कहेगा वही तू देख
ऐसे होंगे कुछ वो बोल, खोलेगा वो सबकी पोल।
मधुशाला भी वो स्थान है…..

कम पिए तो मज़ा ना आए, मनहूसियत सा मुँह बनाएँ
कह ना पाए और मँगाओ, मन ही मन वो कुढ़ता जाए
सारी उसकी क़ाबिलियत फिर, अपने में ही रहे समाए
कोई कुछ भी पूछे तो वो, मुंडी केवल दे हिलाए।
मधुशाला भी वो स्थान है…..

महफ़िल लगी है मधुशाले में, बैठा हर तबके का व्यक्ति
कोई एक, कोई दो, कोई चार पैग में मस्त
कितना कोई भी पी लेता, पड़ता एक पैग फिर कम
उसी कमी को पूरा करने, लगेंगे सारे फिर से जतन।
मधुशाला भी वो स्थान है…..

अगर हुआ कुछ वहाँ बवंडर, कहाँ किसी का रहा नियंत्रण
दो धड़ों में बटी मधुशाला, एक मारे एक बचाए
कुछ उसमे कम पीने वाले, मौक़ा देख चम्पत हो जाए
बाक़ी सब जब ठंडे पड़ गए, तब आपसदारी बतलाएँ।
मधुशाला भी वो स्थान है…..

हुई सुबह नशा ज्यूँ उतरा, दिखने लगा रात का सपना
सोचा अब ना कभी पियूँगा, सादा जीवन मैं जियूँगा।
हुई शाम फिर मचा कोलाहल, सोचा कल से नही पियूँगा
पहुँच गए फिर वही घूम के, पकड़ी बोतल बोले चूम के
तू जो जाए मेरे अंदर, तभी तो मैं बनूँ सिकंदर।
तू जो नही है, कुछ भी नही है, कलियुग की देवालय तू है
बड़े बड़े है मत्था टेके, ऐसी ही मदिरालय तू है।
मधुशाला भी वो स्थान है…..

~ भरत कुमार दीक्षित

Leave a Reply


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.