यह शहर बदला-बदला सा लगता है। यहाँ के लोग भी बहुत बदल चुके हैं। इसी बदलाव और स्वाभाव की चर्चा कलमकार मुकेश बिस्सा ने अपनी इस कविता में की है।
हो गया कैसा ये शहर
पल पल में बदलते
यहां लोग है
जितने तो मौसम
भी न बदलते
सोता हुआ एक
शहर है
अंधेरे में
डूबा हुआ
उदासी के साये में
धुंध के आगोश में
बाहर है उजाला
भीतर है अंधेरा
हर कोई तलाश
में एक मतलब की
न किसी का ईमान
न ही कोई धर्म है
जिंदगी हर कोई
यूँही जिये जा रहा है
न तो सुबह सुहानी
न ही सुहानी शाम है
बैचैन सा हर आदमी
फिरता है मारा मारा
संबंधों को ताक पर
जीवन बसर किये जा रहे है
लोग मिलते हैं आपस मे
मशीन की जानिब
मन करता है
बदल दूं
अपने इस शहर को
कुछ खुशी बांटू
कुछ ले लूं गम
जज्बा इंसानियत का
हर दिल को ला के दूं
प्यार की खुशबू
उपवन में फैला दूं
वो पुराना शहर
वापिस ले के आऊँ~ मुकेश बिस्सा