मजबूर हुए मजदूरों की इस मन की पीर लिखूँ कैसे
लाचारी बनी हुई सबकी लौटूँ घर-बार अभी कैसे।
इस कोरोना का कहर हुआ और हाहाकार मचा ऐसे
चल लौट चलें अपने घर को अब गाँव से दूर रहूँ कैसे।
कैसी भी विपदा आती है सहना पड़ता है गरीबों को
ऊपरवाले की झोली में नहीं मन की पीर लिखूँ कैसे।
शहरों में जा बसने वाले इस भय से गाँव चले हैं अब
अब याद आ रहा लोगों को बिन गाँव गए भी जियूँ कैसे।
इस मन की पीर हुई ऐसी सभी सोच रहें हैं कहूँ कैसे
कुदरत का अनोखा खेल है ये सब घर को चलें हैं लिखूँ कैसे।
धर्मों के नाम पे लड़ते थे अपने भी साथ ना रहते थे
इंसानियत ही काम में आती है धर्मों की गुहार करूँ कैसे।
कहीं चुपके ही सबके मन में सच्चाई का एहसास भी है
इस देश में सब अपने ही हैं पर खुलकर बात कहूँ कैसे।
मैं खुद को रोक नहीं पाई इस मन की पीर लिखूँ कैसे
दिल दहल रहा है आज मेरा, मैं साक्षी बन के बैठूँ कैसे।
~ साक्षी सांकृत्यायन