भूख और रोटी- कलमकारों के विचार

भूख और रोटी- कलमकारों के विचार

भूख और रोटी- कलमकारों के विचार

रोटी ~ पूजा कुमारी साव

रोटी कितना मामूली और छोटा शब्द
पर है विराट इसका स्वरूप
जान जाते को, बचा ले
जिसे ना मिले उसे यह मुआ दे
जन-जन के लिए यह है बलिदानी
मिले तो, यह सिद्ध हो आत्मदानी।

आदिकाल से देती, सहारा
क्या राजा, क्या प्रजा?
भेद यह, ना किसी से करता
सबजन का समान रूप से है पेट भरता
सबकी क्षुद्रा को है, शांत करता।

रोटी की तलब, जब लगती है
बड़वानल, तेज जलती है
सब मूर्छित सा, बयाल बन
करता उपाय, स्वार्थी बन
मालिक-मजदूर की बात ना पूछो
एक है शासक, एक शोषित समझो।

रोटी से केवल ‘रोटी’ नहीं
समस्त अन्न का, संकेत है मिलता
रोटी को बेचत, अभिभावक निज संतान को
खेत कोई, कोई भगवान को
कोई शरीर, कोई ईमान को
कोई निज कोख, कोई निज मकान को।

दिन-रात मेहनत कर भी
ना क्षुद्रा मिट पाती है
जीवन, रोटी बिन कभी
कभी रोटी से चलती है।

पूजा कुमारी साव
कलमकार @ हिन्दी बोल India

रोटियां ~ वन्दना सिंह

उलझना उसका लाजिमी था ,
रोटियो के व्यास में।
जिन्दगी के चक्र का घूमता हुआ,
पहिया है ये।
हर चक्र में एक संकल्प है,
मानवता को रचने में सक्षम है ये।
हर बार बेलन से संहिहारती है वो,
अपने ही भाग्य को संवारती है वो।
हर चक्र में घूमता है दिन और रात,
पृथ्वी के घूमने की परिकल्पना है ये।
मौसम भी यूं ही नही बदलतें ,
ज्यों घूमती है रोटी,
करवट लेता है मौसम।

वन्दना सिंह
कलमकार @ हिन्दी बोल India
SWARACHIT1405A

भूख ~ राम प्रताप वर्मा

भूख जो उपजी है हमारे उदर में!
रोटी! हमारी पहली आवश्यक आवश्यकता,
पाषण काल से आज काल तक,
हमनें किया अपना बहुत विकास,
सदैव से करते आ रहे हैं हम; पुरुषार्थ !
धी के तीव्र ऊर्ध्व गति के बल पर!
खाया फल; खाया फूल और खाया कन्दमूल!
खाया कच्चा और फिर खाया भून!
समय के साथ हुआ ज्ञानार्जन!
हमने जतन से पका कर; खाना किया शुरू!
भूख के साथ पौष्टिकता और स्वाद का,
सामंजस्य हम बैठाने में रहे सफल!
अखिल धरा पर हमने की फतह,
और उत्तरोत्तर बन रहे हैं,
श्रेष्ठ से सर्व श्रेष्ठ; ज्ञानी से महा ज्ञानी!
घास-पात; फल-फूल,
अनाज और मांस से आगे बढ़कर,
हम खा रहे हैं!
सांप, चमगादड़, नेवले, छिपकली और घोंघे!
क्षुधा तृप्ति से बहुत आगे निकल चुके हैं हम,
मिटाने तन की भूख!
जिसमें जीवों को वध कर बनाते हैं,
इत्र, कामोत्तेजक दवाएं और कैप्सूल
पर हम इतने पर भी,
कहाँ हैं रुकने वाले!

बढ़ चुकी है भूख, हमारे मस्तिष्क की!
और हम करना चाहते हैं,
सम्पूर्ण सृष्टि को अपनी मुट्ठी में,
इसीलिए हमने बनाए जैविक हथियार!
पर अति होती है बुरी,
अब घुट रहा है, हमारा दम!
फूल रही हैं श्वास!
हम दुबके हैं घरों में!
बचाने के लिए अपना जीवन!
पर यह भूख ही है!
हमारे तन की, मन की, मस्तिष्क की,
जो हमें खाद्य श्रृंखला तोड़ने को,
करती है उद्वेलित!
लगता है यह भूख इतनी गयी है बढ़!
कि ख़त्म कर देगी हमारा अस्तित्व!
यह भूख तन की मन की मस्तिष्क की!

राम प्रताप वर्मा
कलमकार @ हिन्दी बोल India
SWARACHIT1284

भूख ~ दीपिका राज बंजारा

भूख, केवल खाना खाने की इच्छा नहीं होती ।
किसके पास जाएगी इसकी कोई दिशा नहीं होती।।
जब अंधेरी रात फुटपाथ पर कोई बच्चा रोता है ।
समझ जाना उस रात वो भूखा ही सोता है।।
दो दिनों तक उसने कुछ ना खाया होगा।
दर-बदर वो दो रोटी मांगने गया होगा।।
किसी दर पर उसे झूठन मिल ही जाएगी।
उसके चेहरे पर मंद मुस्कान सी आएगी।।
खा झूठन, वो बच्चा खुश हो जाता है।
अपनी भूख वो हर रोज ऐसे ही मिटाता है।।
पर किसी रोज उसे वो झूठन भी नही मिलती है।
उसकी माँ उसे उस रात पानी पिलाकर ही सुलाती है।।
भूख, अलग-अलग पकवान खाने की चाह नही होती।
समझ जाते गर “भूख” को तो भूख से किसी बच्चे की मौत नहीं होती।।
माफ करना पर आपको भूख का अहसास नही हो पाएगा।
और गर हो गया तो आपके निकट कोई बच्चा भूखा नहीं सोएगा।।

दीपिका राज बंजारा
कलमकार @ हिन्दी बोल India
SWARACHIT750

This Post Has One Comment

  1. वन्दना सिंह /लहराता वाराणसी/(up)

    बहुत ही सुन्दर, यथार्थ से जुड़ी हुई रचनाएँ।

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