जहां खुली आंखें मेरी,
जहां मैंने चलना सीखा,
बापू की वह स्नेही अंगुलियाँ,
जिसे पकड़कर चलना सीखा,
जिस का आशीर्वाद सदा सर पर मेरे,
उस माँ के अंक में सोना चाहता हूं,
ऐ जिंदगी थोड़ी मोहलत दे मुझे,
मैं घर लौटना चाहता हूं।
जहां बीता बचपन मेरा,
जहां ले मैने अंगड़ाइयां,
था प्यार मिला इतना मुझे,
कभी छू ना पाई तन्हाईयां,
जिस घर में गूंजी किलकारियां मेरी,
उस आँगन की धूल चाहता हूं,
ऐ जिंदगी थोड़ी सी मोहलत दे मुझे ,
मैं घर लौटना चाहता हूं।
दिन भर की सैर-सपाटे मेरे,
वो हमउम्रो संग मेरी लड़ाइयां,
जिन पर पड़ती रोज डांट मुझे,
वो दोस्तों संग मेरी लड़ाइयां,
जिस गांव से जुड़ी यादें मेरी,
उस गांव को समर्पित होना चाहता हूं,
ऐ जिंदगी थोड़ी सी मोहलत दे मुझे,
मैं घर लौटना चाहता हूं।
छूट गया वह गांव मेरा,
थी कुछ ऐसी मजबूरियां,
शहर की चकाचौंध में फंसकर,
हमने बना ली अपनों से दूरियां,
अब इस भीड़ भाड़ शोरगुल से दूर,
पीपल की छांव में सुस्ताना चाहता हूं,
ए जिंदगी थोड़ी मोहलत दे मुझे,
मैं गांव लौटना चाहता हूं।
~ प्रभात कुमार गौतम