मैं रिझाऊंगा फिर

मैं रिझाऊंगा फिर

कलमकार विजय कनौजिया अपनी इस कविता में हँसने, मनाने, रिझाने कि बात लिख रहें हैं। कभी कभी हम उदास होते हैं तो ऐसा लगता है कि यह आलम समाप्त ही न होगा पर ऐसा नहीं होता है और कुछ पल के बाद हम फिर से मुस्कुरा उठते हैं।

कितनी हसरत लिए
मैं भटकता रहा
कोई मिल जाएगा
कोई भा जाएगा
कुछ सुनेगा मेरी
कुछ सुनाएगा भी
थोड़ा हंस करके
मुझको हंसाएगा भी
होगी फिर से वही
बात अपनी अलग
अपने अंदाज में
मैं रिझाऊंगा फिर
मान जाएं अगर
अपना साथी मुझे
उनके संग में फिर
जीवन बिताऊंगा मैं
पर ये सपना न साकार
अब तक हुआ
जाने कैसे अब खुद को
मनाऊंगा मैं..।।

~ विजय कनौजिया

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