मैं उसे शिद्दत से लिखता हूँ

मैं आज भी उसे हाँ! सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।

पूछा था किसी ने एक बार हँसकर मुझसे
कि उसे पाने के बाद तो नहीं लिखोगे तुम?
जब हो जाएगी तुम्हारी तलाश पूरी
आस पूरी, उसमें होकर मुकम्मल
फिर तो नहीं लिखोगे तुम।
मैंने कहा नहीं, मैं उसे कल भी लिखता था
मैं आज भी उसे हाँ! सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

उसका मिलना और मिलकर बिछड़ना
मेरे लिखने की वजह बन गया।
एक अनाम गठबंधन दोनों के
दरमियान बेवजह बन गया।
प्रथम मिलन का दृश्य मेरे
नयन भर भर जाता है,
देख देख कर स्वप्न मिलन के
“मनु” गीत प्रीत के गाता है।
पहले मैं प्रेम को राधा लिखता था,
आज मैं प्रीत को मीरा लिखता हूँ।।

मैं आज भी उसे हाँ! सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।
वह आज भी मुझे हर मंजर में
यत्र-तत्र नजर आ जाती है,
हर जर्रे-जर्रे में उसका बसर है
वह हवा है हर जगह रहगुजर है।
गिराकर रहती है वह भी घूँघट
पलकों का हर वक्त मेरे सम्मान में,
शायद मैं बादल उसे हर बसर में दिखाता हूँ।
मगर मैं आज भी उसे हाँ! सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

उसके साथ गुजरे लम्हों की
अनुपम सौगातें लिखता हूँ।
जो शेष रह गई थी दफन दिल में
कुछ अनकही बातें लिखता हूँ।
उसके बिन बसर हो रही जागती
आँखों की काली रातें लिखता हूँ।

छितराई रहती थी चाँदनी मुझ पर
हर रात गहराते-गहराते।
पहले मैं हर रात को पूनम लिखता था,
आज मैं हर रात को अमावस लिखता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ! सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

लिखता हूं उसके जज्बातों को
मेरे साथ किये हर वादों को,
हर वक्त मुझ पर छा जाती
काली गहराती उसकी यादों को।
मैं लम्हा लम्हा हर रोज
कागज पर बूँद-बूँद बरसता हूँ।
हां मैं आज भी उसी को बस सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

उसका मुझे यूँ बेवफा कहना
अच्छा नहीं लगा
सोचता हूँ वह भी मेरे बगैर अधूरी होगी,
अगर मैं भी उसके बगैर अधूरा हूँ
हाँ दुनिया की नजरों में
मैं मुकम्मल हूँ, शायद पूरा दिखता हूँ,
किसी के लिए बेहद अच्छा
मगर किसी को तो बहुत बुरा दिखता हूँ
मैं आज भी उसे हाँ! सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

मेरे खाली कमरे का सूनापन
चीख चीख कर डराता है मुझे मेरा अकेलापन
और मजबूर करता है
बरसने पर मेरी आंखों को उस का भोलापन
सबके पास होते हैं खिलौने
अपना-अपना दिल बहलाने को,
और बन जाते हैं कुछ रिश्ते
महज दुनिया में बस “रिश्ते” कहलाने को।
कुछ ऐसे भी होते हैं
जो होते ही हैं सिर्फ जख्म सहलाने को
उसके हर झूठे वादे सजा रखे हैं
मैंने अपने ख्वाबों के कमरे में।
बनाकर गुलदस्ता महकाता हूँ
मैं अब हर रोज खुद को।
मेरे दामन पर पड़ी सलवटें
बयां करती है कि कितना
सो पाता हूँ मैं इन तन्हा रातों में ।
हर साँझ सूरज ढ़लते-ढ़लते
मैं भी हौले-हौले ढ़लने लगता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

चाहा क्या था मैंने उससे
सिर्फ चन्द लम्हों का उसका साथ भर,
मुसाफिर हूँ माँगा था चलने के लिए
बस अपने हाथों में उसका हाथ भर।
लोगों को आज भीवहम है
कि घर में चिराग जल रहा है मेरे रात भर।
सच है रात होते-होते, अँधेरा गहराते,
पूरी रात में हौले-हौले
लड़खड़ाता हुआ एक दीया सा जलता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

आज तक नहीं सजाई मैंने
कोई तस्वीर अपने कमरे में।
शायद कुछ अधूरा है उसके बगैर
गर देखता रहूँ ताउम्र यही,
हाँ यही ख्वाब तो क्या बुरा है इसमें।
क्या नाम दूँ उसे और उसकी इस मोहब्बत को,
पहले हर लफ्ज़ उसके लिए लिखता था
अब हर अल्फ़ाज़ उसको लिखता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

और मैं क्यों मुस्कुराता रहता हूँ अक्सर,
एक अधूरी हँसी यह राज है यारों,
जाते-जाते कहा था उसने
कि आंख तुम्हारी छलकेगी
तो वो सब आंसू मेरे होंगे,
गर पलकें नम मेरी होंगी
तो वो सब गम तेरे होंगे।
तब से मैं उसे बंद पलकों से ही
बस हर पल खुश महसूस करता हूँ,
वह कहीं दूर ना चली जाएं मुझसे,
आंखें खोलने से भी डरता हूँ।
वह है बसी मेरी आंखों में तैरते पानी की तरह
कहीं गिर ना जाए बस इसलिए हंसता रहता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ! सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

वह मेरे बगैर कैसी दिखती है,
सूनी कलाईयाँ, उजड़ी हुई माँग, बिन पायल?
या देखती होगी सज-धज कर
करवाचौथ का चाँद,
मेरे बहाने किसी और के चेहरे में
मैं अब नहीं जानना चाहता।
वह मुझे कितना लिखती है,
कब लिखती है, कैसे लिखती है
लिखती भी है या नहीं?
मैं नहीं जानता चाहता हूँ।
मगर मैं आज भी उसे हाँ! सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।

आज मैं इन दीवारों को
एक दर्द भरा उद्बोधन लिखता हूँ
मैं उसके रिश्ते को
एक अनाम संबोधन लिखता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।
उसकी याद लिए दिल में मैं
आज भी भीतर भीतर जलता हूँ,
कतरा-कतरा लम्हा-लम्हा,
आज भी रेत की भाँति ढ़लता हूँ।
उसकी सांसों की तपिश में
मैं बूँद-बूँद पिघलता हूँ।
जैसे कोई बच्चा मचले है,
मैं अब भी उसके लिए मचलता हूँ।
बनकर चंचल चकोर मैं
मेरे चाँद को तरसता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ।।


~ मनोज कुमार सामरिया “मनु”
शिक्षक, साहित्यकार- मुरलीपुरा, जयपुर


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