आखिर कब सुधरेंगे हम? कितनी जानें जाएंगी?

आखिर कब सुधरेंगे हम? कितनी जानें जाएंगी?

पता नहीं माहौल ऐसा क्यों बन चुका है। इंसान में मानसिक विकृतियाँ उसे एक अलग ही रूप में प्रस्तुत कर देती हैं जो एक सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं होता। संकीर्ण मानसिकता के चलते अनेकों बार गंभीर अपराध हो जाते हैं। आज हम सभी को अपने भीतर एक सकारात्मक सोच लानी है जिससे एक आदर्श समाज का निर्माण हो सके, जहां अपराधों की आशंका ही न पनपे।

हाल ही में घटित कुछ घटनाओं ने सभी के मन पर प्रहार किया है और न्याय की माँग गूंज चुकी है। हर कोई चाहता है कि उचित न्याय मिले, नारी सम्मान सिर्फ दिखावा न हो और ऐसी शर्मशार करती हुई घटनाएँ भविष्य में न हों। हिन्दी कलमकारों ने अपने मन की पीड़ा और अभिव्यक्ति इन कविताओं में व्यक्त की है।

चराग़, मां और बापू का बुझा दिया

डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह “सहज़”

किस तरह से सहमी सहमी हैं,
ये नंन्ही सी प्यारी तितलियां,
मुल्क में हो रहे इन हादशों ने,
हमें, खामोशियों से कह दिया,
तू बे वफ़ा है, जाते जाते उसने,
ये हमको समझा के कह दिया,
कोई कुछ नहीं बोला, भीगती,
नम आंखों ने दिल से कह दिया,
मेरे दिल में ही वो रहा करता था,
और साथ साथ मुस्कुराता, था,
न जाने क्या ज़माने ने, मुत्तालिक,
मेरे उस दिलरुबा से कह दिया,
डूब जाएगा समंदर में, हौसला,
तूने तोड़ दिया जो अपना,
लहरों ने न जाने क्यों चुपके से,
कानों में में नाखुदा से कह दिया,
कुछ न बोली मां, सर अपना,
उसने धीरे से अपना
झुका लिया,
मैन झुकाया सर अपना तो, फिर,
हाथ उसने मेरे माथे पे रख दिया,
दिल इनका मोहब्बतों से खाली है,
दर्द,समझ मे इनको कहां आता है,
दहशत का मंज़र कहाँ है, शहर में,
रहनुमाओं, के अंदाज़े, हुनर ने कह दिया,
अंधा था, अब गूँगा और बहरा भी,
होता जा रहा है, “मुश्ताक़” आदमी,
इस मासूम की कटती हुई ज़ुबाँ ने
सरे आम देश की जनता से कह दिया,
चराग़ मां और बापू का बुझा दिया,
खुले आम किस तरह दरिंदों ने,
खामोशियों की चादरों का भाव,
आसमानों तक पहुच गए,
चैन व अमन है मुल्क में हमारे,
रहबरों ने मुस्कुरा के कह दिया,
कुर्सी, की सियासत कहाँ जा रही देखो,
देश में हो रही, हल चलों ने कह दिया।

बेटी ही क्यों?

बबली कुमारी

आज फिर एक बेटी
हो गई हैवानियत का शिकार
क्या कर रहा है समाज?
क्यों गूंगा बन बैठा है सरकार?
बेटी बेटी और सिर्फ बेटी
बेटियों पर आए दिन
क्यों हो रहा है अत्याचार?
कभी निर्भया कभी आसिफा
कभी प्रियंका कभी गुमनाम
इस बार मनीषा बन गई
इन दरिंदों कि दरिंदगी का शिकार
और अब भी मौन हुआ है सरकार
कब तक चलेगा ऐसा?
कब तक मिलेगा बेटियों को इंसाफ?
आजाद भारत की गुलाम बेटियों को
कब होगा आजादी का एहसास?
कोई तो एक तिथि बता दो
कब तक आजादी मिलेंगी बेटियों को?
चाहे तो बंद कर रख लो दस साल
पर ११वें साल से बेटियों की
सुरक्षा सुनिश्चित करवा दो
बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित करवा दो

एक और घटना

सोमा मित्रा

ये आग कब तक जलेगी,
हैवानियत मर्द की जब तक रहेगी,

बेटी की एक और बली चढ़ गई,
दर्द ये इंसानियत कब तक सहेगी,

क्यों महफुज नहीं अस्मत दौर किसी में भी,
दास्तान ए ज़ुल्म ये कब तक चलेगी,

है जन्नी हैं देवी हैं वजूद वो हमारा
दुत्कारी बेटी ही समाज में कब तक रहेगी।

दोषी कौन लड़की?

खुशी प्रसाद

रास्ते पर अकेली चलने से अब उन्हें डर लगता है,
यह सब उन हादसों का उनपर असर लगता है।
इन हादसों से लोगों का इंसानियत पर से भरोसा उठ जाता है,
बहुत कम ही न्यायालय हैं जो इन बेकसूर लड़कियों को न्याय दिला पाता है ।
कानून पहले उंगली लड़की पर ही उठाती है,
कि लड़की घर से बाहर अकेले ही क्यों चली जाती है।
अब लड़कियों साहस जगाओ,
अपनी मुश्किलों का हल खुद पाओ ।
साहस ना दिखलाओग,
तो खुद की क़ातिल बन जाओगी ।
तुम सरस्वती तुम ही में काली है,
मां लक्ष्मी तुम ही हो तुम ही में शेरों वाली है ।
ज्ञानता कि देवी हो अगर तो मां लक्ष्मी का रूप भी हो,
किसी दुस्साहसी के लिए तुम काली का स्वरूप भी हो।
तोड़ दो वह हाथ जो तुम्हारी तरफ उठते हैं,
नोचलो वह आंखें जो गंदी नजर से देखते हैं ।
अरे लड़कियों डरने की जगह यह रास्ता अपना करके देखो ,
फिर क्या फर्क है यह तुम्हें तब पता चलेग,
पहले इसे आजमा करके देखो।

सपने उसने भी बुने होंगे

अंजू स्वामी

कुछ तो सपने उसने भी बुने होंगे
जीवन के कुछ बुरे अनुभव उसने भी सुने होंगे
क्या पता था चढ़ जाएगी वो भी एक दिन इन दरिंदों के हाथ
खूब चीखेगी चिल्लाएगी पर कोई ना देगा साथ
लड़की होने का अभिशाप मौत के साथ ले जाएगी
गैंगरेप पीड़िता को न्याय मिले फिर से लोगों को यह बात दे जाएगी
अन्याय करने वालों ने रीड की हड्डी थोड़ी काट दी जुबान
मासूम सी लड़की के लिए करोना तो कुछ नहीं इंसान ही बन गये हैवान
क्या ऐसे ही होते रहेंगे गैंगरेप
मरते रहेंगी हजारों मासूम आंखों में जीवन के सपने लिए हुए
अंदर से झकझोर दिया बस रुक जाए ये हैवानियत
बची रहे बस इंसानियत मेरा मन बस यही दुआ लिए हुए

सम्मान बचाओ

नेहा यादव

हे स्त्री तुम व्यर्थ रो रही,
क्यूं अपना संघर्ष खो रही।

उठो फिर ललकारो तुम,
डरो नही फ़नकारों तुम।

समाज बेमुख चुप रहेगा,
ये बात को स्वीकारो तुम।

स्वाभिमान को स्वयं ही,
आगे बढ़कर बचाओ तुम।

प्रतिकार ज्योति बुझे ना,
दुष्टों को नष्ट कर डालो तुम।

उठो जागो त्रिशूल उठाओ,
अपना सम्मान बचाओ तुम।

क्या इंसाफ मिल गया?

इमरान संभलशाही

शहर भर में जोरों ज़ोर से
हल्ला हुआ
बलात्कार, बलात्कार बलात्कार…
व्यवस्था दादा कांपते हुए पूछ बैठे..
किसका… किसका…. किसका?
धमाकेदार भर्राई आवाज़ में पीड़ा चिल्ला पड़ी
देश की बेटी का
और किसका?

दादा आंखें फाड़ते हुए
निस्सहाय शैली में कराह उठे
बेटवा!
देश की बेटी तो अपनी बेटी भी हुई ना…
तभी नेपथ्य से
एक यथार्थ चीत्कार सुनाई दी
रुंधे गले में
हाँ! हाँ! आपकी ही अपनी बेटी.. हाँ! हाँ
इतना सुनते ही दादा धड़ाम से धरती में धंस पड़े

फिर चारो तरफ का समाचार जागा
प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक आदि आदि आदि.. सभी
बहस मुबाहिसा शुरू
इल्ज़ाम लगाई चरम पर
समाज छाती फैलाये थर्रा उठा
नेता नूती अपनी अपनी राजनीतिक दल के शिरोधारियों के संग
नुक्कड़ चौराहो, सड़को, गलियों, फुटपाथों आदि पर
हो हल्ला, ज़िन्दाबाद, मुर्दाबाद के साथ
अपनी विपक्षी तेवर दिखाने में लग गए …
पकड़े गए, घसीटे गए
गिरफ्तारी हुई
लाठी खाये
छीने झपटे गए
किसी का सर फूटा तो किसी का कपड़ा फटा
किसी के बाल नोचे गए तो किसी के पैर पर किसी का पैर पड़ा

अंततः तमाम ड्रामों के मध्य सभी छुटकर बाहर भी आ गए
दलित-दलित, अल्पसंख्यक-अल्पसंख्यक आदि आदि
शब्दो की जादूगरी में विवाद बन्द हो गए
क्योकि सरकार जनांदोलन के भारी दवाब में
रसों के रस हाथरस को इंसाफ सौंपती हुई
रस सम्राट डीएम व एसपी को तत्काल निलंबित कर दिया
चारो तरफ के ढोल डंके बजने लगे
कि हो गया इंसाफ, मिल गया इंसाफ

क्या वाकई इंसाफ मिल गया क्या?
अब कोई कुछ कहने वाला नही
हाँ हाँ इंसाफ मिल गया
एकाएक एक ईश्वरीय ध्वनि सुनाई दी कि
सीबीआई बची है…
आदम के संतानों.. उस पर भी क्या तुम उम्मीद कर सकते हो
तभी अचानक से ध्वनि गुम हो गयी
और चारो तरफ केवल व केवल सन्नाटा था अब!

तुम्हें चंडी अवतार लेना है

मनोरथ सेन

खुद को पहचान तु,
अब तक क्यों मौन है?
मर चुका है यहाँ ,
इंसानों का जमीर,
नपुंसको की सरकार से,
इंसाफ की उम्मीद रखना,
कायरों का काम है।

सुनो द्रौपदी,
नहीं आयेंगे कोई केशव,
तुम्हें अपना वस्त्र देने,
इस कलियुग में,
जिस्म के भूखे असुरों का,
चारो ओर कहर है।

कि नहीं आयेंगे कोई जटायु,
रावण से लड़ने,
न मिलेगा कोई राम,
हरण के बाद तुम्हें स्वीकारने,
आज यहां,
ज़िंदा जिस्म को नोचने वाले,
गिद्धों का बसर है।

अपनी वात्सल्य,
ममता के रुप को त्याग कर,
तुम्हें चंडी अवतार लेना है,
नारी के अस्तित्व को बचाने,
फिर से तुम्हें,
इन असुरों का संहार करना है।

क्यूँ हर बार इंसाफ मांगना पड़ता है?

स्नेहा धनोदकर

क्यूँ हर बार इंसाफ मांगना पड़ता है?
पीढ़ियों से चली आ रही
है ये असामाजिक प्रथा
नारी की स्तिथि सादा दयनीय
क्यूँ नहीं कोई सुनता यहाँ
पीड़ित नारी की व्यथा

वनवास तो मिला राम को
पर भोगा सिर्फ सीता ने
कलंकित जान त्याग दिया
क्यूँ प्रमाण माँगा एक पिता ने
ना मिला उसे भीं इंसाफ,
आखिर सब कुछ त्यागना पड़ता है
क्यूँ हर बार इंसाफ मांगना पड़ता है?

पांच पति भीं ना बचा पाये
एक द्रौपदी की लाज़
कैसे वचनों को माना
क्यूँ ना पहना हिज़ाब
भरी सभा मे आखिर उसे
प्रभु से बचाव मांगना पड़ता है
क्यूँ हर बार इंसाफ मांगना पड़ता है?

वो तो थी देवियाँ
उन्हें भीं ये सहना पड़ा
कोई भीं हो नारी यहाँ
हर रूप मे यही कहना पड़ा
क्यूँ पुरुष का दंम्भ इतना अकड़ता है,
क्यूँ हर बार इंसाफ मांगना पड़ता है?

पहुँच गई भगवान के पास
मनीषा हो निर्भया
ए दुष्ट मानव तुझे
थोड़ी ना आयी हया

कुछ दिन चिल्लायेंगे
बहुत हल्ला मचायेंगे
मोमबत्ती जलायेंगे
फिर शांत हो जायेंगे
हर बार यही सब करना पड़ता है
क्यूँ हर बार इंसाफ मांगना पड़ता है?

एक दिन मनाते है बेटी दिवस
अगले दिन उन्ही सँग हवस
अब भीं नारी भोग मात्र है
समझे यही ये मानस
इनसे तो अच्छे है वो
जो कोख़ मे ही मार आते है
जिन्दा लाश बनाने वाले
दरिंदो से तो उन्हें बचाते है

शायद इसीलिए हर माँ भीं
बेटा चाहती है ताकि
बेटी को ना सहना पड़े
जो वो सब सहती है.
जीने का हक़ भीं यहाँ जाकर
खिलाफ मांगना पड़ता है,
क्यूँ हमेशा इंसाफ मांगना पड़ता है?

क्यूँ करते हो हर बार
अपनी माँ को शर्मिंदा
कोई बेटी यहाँ सुख से
ना रह सकती जिन्दा

क्या वाकई मे लड़की
होना है यहाँ गुनाह
कभी कोई नहीं देगा
हमें अब पनाह
बचा के हमें अपना दामन
साफ रखना पड़ता है
क्यूँ हर बार इंसाफ मांगना पड़ता है?

क्या यही होता रहेगा हमेशा
कभी सुरक्षित ना होंगी
कोई बेटी अब यहाँ
तो है भगवान
बस एक ही वर दीजो
अगले जन्म मोहे
बिटियाँ ना कीजो
अगले जन्म मोहे
बिटियाँ ना कीजो

क्युकि मिलता नहीं आसानी से
बार बार खंगालना पड़ता है
हर बार यहाँ चिल्ला चिल्ला के
इंसाफ मांगना पड़ता है

न्याय की तलाश में हूँ

अजय प्रसाद

सदियों से ही उचित
दलितों, पीड़ितों औ शोषित के लिबास में हूँ।
ज़िक्र मेरी भला कोई करे क्योंकर ग्रंथो में
कहाँ नज़रो के, वाल्मिकी या वेद व्यास में हूँ।
हर दौर ही दगा दे गई यारों दिलासा दे कर
बस ज़रुरत के मुताबिक उनके पास में हूँ।
रोज़ लड़ता हूँ लड़खड़ाकर जंग ज़िंदगी से
मुसीबतों के महफ़ूज साया-ए-उदास में हूँ।
कभी तो अहमियत मिलेगी मेरी गज़लों को
अजय उस महफिल-ए-ग़ज़ल की तलाश में हूँ

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20WED00423हर बार क्यूँ इंसाफ मांगना पड़ता है?
20SAT00435न्याय की तलाश में हूँ
SWARACHIT1815Aतुम्हें चंडी अवतार लेना है
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