डॉ कन्हैयालाल गुप्त ‘किशन’ जी की दस कविताएं

१. रामायण

सदा शुभ आचरण करना, सिखाती रोज रामायण।
हमें संमार्ग पर है चलना, बताती रोज रामायण।

ये भावों से भरी तो है, ये गीतों से तो गुंज्जित,
यहाँ श्रीराम का मुखड़ा, ललित सुरधाम देता है।
ये पावन करती पतितों को, ये भावन लगती भक्तों को।
प्रभु श्री राम की महिमा, उमड़ पड़ती है भक्तों को।
सदा शुभ आचरण करना, सिखाती रोज रामायण।

हमें संमार्ग पर है चलना बताती रोज रामायण,
भरत सी भायप भक्ति कहाँ, लखन सा सेवक हो पाना।
बडा़ मुश्किल है माँ सीता सा, जीवन को तो अपनाना।
सदा शुभ आचरण करना, सिखाती रोज रामायण,
हमें संमार्ग पर है चलना, बताती रोज रामायण।


२. खिड़की

दिल की खिड़की तुम खुला रखना, मैं आउगाँ जरूर एक बार.
याद रखना वो प्रथम निमंत्रण, याद रखना वो मेरा एतबार.
जब हृदय के तारों को तुमने प्रथम बार झंकृत किया था.
प्रथम बार इन युगल नेत्रों ने तृप्ति का अनुभव प्राप्त किया था.
हृदय ने जब प्रथम बार तेरे दर्शन प्राप्त कर धड़कना भूल गया था.
याद है वो पहली अनुभूति तुम्हें जब तेरा सौन्दर्य मेरे प्रीति का पाश बना.
फिर पथ पर सहस्त्रों प्रेम गीत बिखर पड़े थे जो सब तेरे प्रेम में उपहार दे आया था.
आज उन प्रेम गीतों को पुनः गुंजायमान कर दो, मेरे प्रेम पथ को जगमग कर दो.
तेरे नयनों की झील में मै तब का डूबा अब तक उबर नहीं पाया हूँ न उबरना चाहता हूँ.


३. सच बतलाओ कब आओगे

सच बतलाओ कब आओगे, जीते जी या मेरे मरने के बाद.
ये अँधियारा कब छँटेगा, जीते जी या मेरे मरने के बाद.
अनिश्चितता, अविश्वास क्या खत्म होगी मेरे मरने के बाद.
ऐसा न हो कि जीने की आशा हो और प्राण पखेरू उड़ जाए.
इसलिए तुम्हारा आना लाजमी है मेरे जीते जी ही मेरे स्वामी.
आ जाओ अब बहुत हो चुका, यह सिद्ध हो चुका मेरी नादानी.
संसार अब निराशा में डूब रहा है, हताशा में डूब रहा मेरे स्वामी.
आ जाओ तुमने वचन दिया था, आउँगा जरूर तुमने कहा था स्वामी.


४. आज कितना अजीब पाता हूँ

आज वातावरण को कितना अजीब पाता हूँ.
आज पर्यावरण को कितना अजीब पाता हूँ.
आज नदियों-झरनों को कितना अजीब पाता हूँ.
आज मौसम को कितना अजीब पाता हूंँ.
आज संबंधों को कितना अजीब पाता हूँ.
अब के शिष्टाचारों को कितना अजीब पाता हूँ.
आज के व्यवहारों को कितना अजीब पाता हूँ.
आज के संस्कारों को कितना अजीब पाता हूँ.
आज के प्रेम को कितना अजीब पाता हूँ.
आज के इंसानों को कितना अजीब पाता हूँ.


५. गुरू

अंधकार से प्रकाश की राह दिखाये, वही गुरू है,
हमारी प्रवृत्तियों को सद्वृति में बदले, वही गुरू है,
भवसागर से पार उतारे, मार्ग बताये, वही गुरू है,
असत्य से सत्य की ओर प्रवृत्ति करे, वही गुरू है,
मृत्यु से अमरत्व की ले जाये, असल में वही गुरू है,
गुरू का जीवन में बड़ा महत्व है, गुरू बिन जीवन नि:शक्त है,
कबीर तो गुरू को भगवान से आगे मानते और जानते हैं,
विवेकानंद बिना सद्गुरु के विवेकानंद नहीं होते, जग जानता है,
एकलव्य- गुरू द्रोण की कथा सारा जग मानता, समझता है,
तभी तो वेदों में सभी ब्रह्म से ऊपर पार ब्रह्म परमेश्वर माना है,
ऐसे गुरूवर का शत शत वंदन है, बारंबार अभिनंदन, नमन है.


६. प्यारी बहना

मेरी प्यारी बहनों की तो बात ही निराली है,
ऐसा लगता साथ है फिर रोज दिवाली है,
भाई का चेहरा देखकर वो खिल जाती है,
वो हँसती मुस्कुराती और गीत भी गाती है,
गर संकट मे भाई तो आँसू भी बहाती है,
आयी संकट टल जाये ईश्वर से मनाती है,
बचपन से साथ रही रिस्तों को निभाती है,
उनकी सूरत तो माता की याद दिलाती है,
बहना इसी तरह प्रसन्न रहो भाई कहता है,
गर जरूरत हो भाई की तत्पर मै रहता हूँ,
सोना चांदी हीरे मोती कुछ नहीं प्यारा है,
बहना तू खुशहाल रहे किशन ये कहता है.


७. मंदिर

आज मंदिर के देवता भी हमसे रूठे है, मनुष्य के भाग्य अब फूटे है,
हम बड़े ही स्वार्थी हो गयें है, मदान्ध हो गये है, लिप्सा हम पर हावी है,
हमने अपने स्वार्थ हेतु ईश्वर को बदनाम किया है, यह गलत काम किया है,
मंदिर में भगवान की मूरत हमने समर्पण निष्ठा हेतु स्थापित किया था,
भक्ति समर्पण निष्ठा भी अब व्यापार हो गया है, मठाधीशों का आधार हो गया है,
आज भगवान हमसे नाराज है, हमारे कृत्य से शर्मसार है, दिखावा ढ़ोग का प्रचार है,
मंदिर के लिए समर्पण, निष्ठा, सेवा की भावना चाहिए, दया, क्षमा, ममता चाहिए,
भगवान तो भाव के भूखे होते है, उनमें भक्ति, आस्था, विश्वास चाहिए.


८. प्रकृति

धरती का श्रृंगार प्रकृति के अंग करते हैं
हवा, नदी, फूल, पर्वत, पठार और कछार
इस हरीतिमा से धरती दुल्हन सी लगती है
जिससे हमारा जीवन सुंदर सजीला सा है
बादलों से अमृत की फुहारे झरती रहती है
ओस की बूँदें भी मोती मानिन्द दिखती है
आज मानव लोभवश इसके क्षरण में रत है
अब प्रकृति भी उसे व्यापार की वस्तु सी है
उसकी छेड़छाड़ अभिशाप बनती जारही है
माँ का मातृत्व उसका छिनता जा रहा है
जिस नदी का जल कभी अमृत लगा था
अब वह विषैला होता चला जा रहा है
वृक्ष, वन, जंगल अरण्य जो कटते जा रहे हैं
धरती की छाती पर रेगिस्तान होते जारहे हैं
आओ इन सब का संकल्प लें संरक्षण करे.
ऊर्वर धरती को बांँझ होने से हम बचायें.
धरती, नदी, पर्वत, फूल वन वृक्ष लगाये.
आओ अब हम धरती माँ का श्रृंगार करें
पुनः उसे शस्यश्यामलाम् सुफलाम् बनाये.
अपने सारे पुनीत कर्तव्य हम सब निभाये.
धरती को बसुधैव कुटुंबकम सा बनाये.


९. आशा ही जीवन है

आशा ही जीवन है निराशा मरण, जीवन को चुनों उसका करों रक्षण.
उम्मीद को त्यागना मरण का द्वार खोलता है, जीने की आशा रख प्यारे.
घने अंधियारे के बाद आती है, चमचमाता स्वर्णिम उजियारा, लगता प्यारा.
बहती धारा में तिनके के सहारे में नन्ही चींटी नदी पार कर जाती है.
वट वृक्ष से गिरा गोदा, मिट्टी में बिखर कर वृहद नव वट वृक्ष को जन्म देता है.
पंक्षी भी अपने पंखों पर उम्मीद विश्वास कर ऊँची उड़ान भरते है.
जीत ही जीत नहीं है जीत का जज्बा, उत्साह, विश्वास, आशा ही जीत है.
सबरी की एक आशा ही उसे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम से मिलाती है.
आशा रखकर ही सिकन्दर विश्व विजेता बनता है मेरे प्यारे.
तू भी रख आशा कर प्रयत्न, कर ईश्वर में विश्वास, सफल हो जाओगे प्यारे.


१०. बूढ़ी माँ

बूढ़ी माँ अब भी भूखी है, वह खोज रही ईधन लकड़ी।
लकड़ी की खोज में अब भी माँ, चुनचुन कर इकट्ठा करती लकड़ी।
आँखों में कुछ विश्वास लिए, मन में इक आशा प्यास लिए।
परिवार की क्षुधा मिटाने को।
थकी हुई बूढ़ी आँखों से, चुनती है लकड़ी ईधन का।
बज उठते मन के सितार, आँखों से गिरता अश्रु धार।
जीवन के पथ पर अब भी माँ, करती रहती जीवन से रार।
जीवन ये रीता बीत रहा, अब इसमें कोई संगीत नहीं।
मानव मानव में प्रीति नहीं, जीवन की कैसी दूरह रीति रही।


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