किसी भी बोझ से न थकता हूं
वक्त की चोट से न रुकता हूं
बस दो वक्त की रोटी के लिए
मजदूरी करता हूं मैं ।
सपनों के आसमान में
बिना गाड़ी बंगले के आराम में
अपने कच्चे मकान में
जीवन जीता हूं मैं ।
फटे पुराने लिबास पहने
कंधो पर जिम्मेदारी ढोने
किस्मत का प्रहार सहने
जैसा सुख रखता हूं मैं ।
चिपके हुए गालो की
हाथों में पड़े छालों की
पैरों में फटे बेवालों की
बिना चिंता किए मेहनत करता हूं मैं ।
पत्थरों को तोड़ने में
रिश्तों को जोड़ने में
परिवार को संजोने में
खुश रहता हूं मैं ।
गरीबी जैसी बीमारी से
जीवन कि हर लाचारी से
अभाव की हर महामारी से
हंसते-हंसते जूझता हूं मैं ।
~ शिवम तिवारी