लॉकडाउन और मजदूर- १

लॉकडाउन और मजदूर- १

कोरोना महामारी के दौर में हर इंसान परेशान है। सेहत का ख्याल रखना है, आजीविका चलानी है परंतु काम करने के स्थान भी बंद हैं। इस समय मजदूरों का बुरा हाल है जो अपने घर से दूर शहरों में गएं हैं और इस संकट की घड़ी में फिर से अपने परिवार के पास आना चाहते हैं। 

हिन्दी कलमकारों ने इस कोरोना काल में मजदूरों की समस्याओं को व्यक्त करती अनेक कवितायें लिखीं हैं, जिनमें उनके दर्द व संवेदनाएँ स्पष्ट दीख पड़ते हैं।

मैं मजदूर हूँ ~ डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया

मैं मजदूर हूँ
आज कंटक हूँ शासन के लिये
शोषकों के लिये अब मुसीबत,
सिरदर्द के सिवाय कुछ नहीं
चिंतकों के लिये विमर्श,
उलाहना का मौका
आम जनता के लिये,
एक दुख की खबर

मैं मजदूर हूँ
मेरा सम्बन्ध रहा है सिर्फ़ वेदना से ही
मिलती रही वह सदियों से
किसी भी रूप में
चाहे वह दर्द हो या दर्दनाक मौत

मैं मजदूर हूँ
बदनसीबी पीछा नहीं छोड़ती मेरा,
भूख-प्यास के बहाने अब कफन बनकर
मंडराकर
आ रही है कहीं भी
चाहे वह पटरी
जिसके सहारे निकला था गाँव,
या उस पर दौड़ती शासन की वह ट्रेन
जिसमें बैठकर
बस पहुँचने ही वाला था अपने घर

मैं मजदूर हूँ
अपने ठिकाने पर पहुँचने से
पहले ही हत्या कर दी गई मेरी
फिर किसी साज़िश के तहत
मैं मारा गया हूँ

डाॅ. भूपेन्द्र हरदेनिया
कलमकार @ हिन्दी बोल India

मेहनती मजदूर ~ दिलाराम भारद्वाज ‘दिल’

कूट पाथर ढ़ेर कंकड़ के, विश्राम करे मजदूर का बेटा।
न धूप न छांव की परवाह, खुले आसमां तले लेटा।
अमीरी गरीबी का दंश, है ये प्रथा पुरानी।
मेहनतकश लोगों की व्यथा सुनों जरा जुबानी।
इनकी दुनियां ये ही जाने, दिल में चोट लगाए गंभीर।
सपने इनके सिमटे रहते, फिर लोहे सा इनका शरीर।
जब तक रहेगा संसार में गरीबों का ये हाल।
न सुधरेगी दुनियां न ही कलंकित चाल।
उठ जाग मुसाफिर भोर हुई, कर अपना तू काम।
जितनी मेहनत करता दिन भर, मिलते न पूरे दाम।
चाहे तू किसान है चाहे तू मजदूर।
शिश्न का तू देवता धनिक से मजबूर।

दिलाराम भारद्वाज ‘दिल’
कलमकार @ हिन्दी बोल India

मजदूर की सोच ~ मुकेश बिस्सा

यही सोचता है मजदूर
उसके घर की छत
पक्की सी हो जाये
जिससे सर्दी में ठंड
गर्मी में लू और
वर्षा में पानी से
उसका बचाव हो जाये

भूखी सन्तान को
उसके एक प्याली
दूध ही मिल जाये
और कुछ नही तो
बासी रोटी के संग
प्याज का टुकड़ा
ही मिल जाये

अपनी जरूरतों को
करने को पूरी
वह अपने पैरों
के नीचे की सड़क को
एक रूप सा दे रहा है
आने वाले कल के
लिए ही उस सड़क
के जख्म सारे
सही कर रहा हैं

भूखा और प्यासा
पसीने में एकदम
नहाया हुआ मजदूर
एक लगन से काम
में इस तरह लगा है
जिससे कल की
कुछ इच्छाएं बस
पूरी हो जाये

मुकेश बिस्सा
कलमकार @ हिन्दी बोल India

अपने ही बाशिंदे लौट रहे हैं ~ देव लाल गुर्जर

लौट रहे हैं वे,
बरसों बाद खाली हाथ लिए
मुसाफ़िरों की तरह

जंगल, सड़के, पगडंडियाँ
उन्हें जितनी राहें मालूम थी
उनमें आ रहे है लौटते हुए
अपने गाँवों की ओर अपने ही बाशिंदें

कहीं पैदल,
कहीं जुगाड़ के सहारेे,
कहीं इका-दूका चलते
तमाम साधनों में लबालब भरे हुए

जहाँ-जहाँ
उन्हें मालूम थे रास्ते
पाँव-पाँव दौड़ते हुए भागते हुए आ रहे हैं

हाथों में बिस्किट, पानी की बोतले लिए हुए
पैरों में पडे़ छालों के दर्द को भूलाते हुए
ज़रूरी सामान और बच्चों को साथ लिए
गाँवों की ओर अपने ही बाशिंदें

जब कभी लौटते थे वे,
त्योहारों, शादियों मंगलकार्यों में
तब लौट आया करते थे चलते फिरते साधनों में

अबकी दफे़ उनका लौटना
इस समय, इतना ज़रूरी नहीं था
कभी-भी-नहीं था,
परंतु लौटना उनकी मजबूरी बन गयी थी

जब कभी लौटते थे वे,
तब बसों, स्टेशनों,
रेलवे आदि साधनों में आया करते थे,
लौटते थे तो साथ लाते थे
तमाम घर की जरूरतों की मुराद पुरी लिए

अबकी दफे़ खु़द बदवास होकर
लौट रहे है नंगे पैरों से
अपने ही गाँवों की ओर बाशिंदें

भूख मिटाने गए थे, अब की बार
खुद़, भूख से व्याकुल हो कर लौट रहे हैं
अपने ही गाँवों की ओर
अपने ही बाशिंदें लौट रहे हैं!

देव लाल गुर्जर
कलमकार @ हिन्दी बोल India

हार कहाँ हमने मानी है ~ शिम्‍पी गुप्ता

हो अनंत नभ या अटल हिमालय या सागर की गहराई हो,
मंगल मिशन हो या गहरे सागर से मोती चुनके लाना हो।
एवरेस्ट विजय हो या सीमा पर दुश्मन से युद्ध हो,
कितनी भी विषम परिस्थिति हो या काँटो पे रस्ता हो।
प्रस्तर को चीर दुर्गम राह बनाने की ठानी है,
मन में है विश्वास हार कहाँ हमने मानी है।

अर्जुन सा निशाना साधना, एकलव्य सी गुरु भक्ति रखना,
कर्ण सा महावीर बनना या राम सा मर्यादा पुरुषोत्तम बनना।
हो कल्पना की तरह अंतरिक्ष भेदकर लक्ष्य साधना,
या दशरथ माँझी की तरह पर्वत पे राह बनाना।
सफलता की राहों में अनगिनत कठिनाइयाँ आनी है,
जीती है हिम्मत से हर बाजी हार कहाँ हमने मानी है।

अंबर से रवि अनल बरसाए या चक्रवातों का तूफान आए,
दामिनी दमके या ओले बरसे या सागर में सुनामी आए।
कोई मिसाइल चलाए या परमाणु बम गिराए,
पर हमारे बुलंद हौसलो को ना तोड़ पाए।
जीतने की जिद जब अपने मन में ठानी है,
तो कठिनाइयों के सामने हार कहाँ हमने मानी है।

बंजर धरा को भी अपना लिया, कर्म के हथौड़े से वार किया,
अनगिनत, असंख्‍य प्रहार कर पत्थर को भी चूर-चूर किया।
स्वयं को रवि की लपटों में तपा दिया, श्रम बिंदु बहा दिया,
बंजर मिट्टी को उपजाऊ बनाया, अन्न का विधान किया।
हमको तो बंजर धरती पे फसल उगानी है,
पत्थरों पे राह बनानी है हार कहाँ हमने मानी है।

नंगे बदन, भूख से व्याकुल,तपती धरा पर नंगे पाँव हो,
दुर्गम हो रास्ता और सफर भी मीलों लंबा हो।
चले जा रहे हैं कदम बढ़ाए अपने गाँव की ओर,
सोचते हुए अब ना आएँगे लौटकर शहर की ओर।
अपने गाँव की मिट्टी माथे से लगानी है,
चले जा रहे हैं हार कहाँ हमने मानी है।

सामने युद्ध में दुश्मन की सेना हो या मिसाइलों का प्रहार हो,
हाथ में तिरंगा सर पे कफन, होंठो पर वंदे मातरम हो।
मर मिटेंगे देश के लिए ऐसा शहादत का जज्बा हो,
जब दुश्मन हो सामने तो सिंह सम दहाड़ हो।
सीने पर दुश्मन की गोली खानी है,
मर कर भी हार कहाँ हमने मानी है।
भारत माँ की आन बचानी है,
अपने देश की शान बढ़ानी है।
हो कितनी भी विषम परिस्थिति,
हार कहाँ हमने मानी है।

शिम्‍पी गुप्ता
कलमकार @ हिन्दी बोल India

मैं गांव बोल रहा हूं ~ कंचन वर्मा

टूट गया था मैं, अब हौसला बढ़ गया है,
चलो किसी बहाने मेरे यहां रौनक तो आया है,
तुम मुझे कौड़ियों के भाव बेच कर भागते रहे,
आज मैं खुली बांहों से स्वीकार रहा हूं
मैं तुम्हारा गांव बोल रहा हूं।।

तड़पता था मैं तुम्हारी आवाज के खातिर,
सुना था मैं तुम्हारी छाज के खातिर,
ताला जड़ दिया था मुझपर!
तुम एक अपने शौक़ के खातिर,
मैं सबकुछ भुला तुझे अपना रहा हूं
मैं तुम्हारा गांव बोल रहा हूं।।

अब आए हो तो यहीं रह जाना,
सब कुछ दूंगा तुम्हें, हमारी औलाद हो तुम,
वो जो मजदूर कहते हैं, उन्हें क्या पता फौलाद हो तुम,
बस तुम्हारे आने भर से खिलखिला रहा हूं,
देखो न मैं जगमगाते दियों से झिलमिला रहा हूं
सुनो! तुम्हारा गांव बोल रहा हूं।।

कंचन वर्मा
कलमकार @ हिन्दी बोल India

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