मेरा शहर कहीं ग़ुम हो गया है ~ अतुल कृष्ण
बदलते वख़्त के मिज़ाज़ के साथ
बसेरा बहुत दूर
वतन से हो तो जाता है
पर जड़ों में की घर की याद
और सोच में मिट्टी की महक बाकी है
यही वो एहसास है की”ज़िंदा हूँ”
ना ही वो बचपन भूलता है –
ना ही बिताये पल !
बस अब फ़ोन ही समेटती है
कुछ पुरानी बिखरती यादों को
कल जब भाई ने कहा
ये कैसी महामारी –
ये कैसा कहर है
अमीर तो चले गए
पहाड़ियों में बसर करने
दिहाड़ियों की जिंदगी का
ठौर ना जाने कहाँ टिके
ये सोच के ही अंदर
कुछ मर सा जाता है
कल जब भाई ने कहा
आजकल मोटर गाड़ियों का शोर
या रिक्शेवाले की घंटी
सड़कों पर सुनाई नहीं देती
अब मोहल्ले के घरों में
कोई डाकिये की राह नहीं देखता
कोई पड़ोसियों के घर जा
चीनी उधार नहीं लेता
तपाक से गले से लगने वाले
अब तो हाथ भी ख़ौफ़ से मिलाते हैं
सब्जी वालों की रेडियां
सड़क के कोने पर
यूँ ही बेकार पड़ी हैं
खाई से भी गहरी- आंखों में उनकी
भूख नहीं- दर्द दिखता है
और वो सुकून इस रोग के सन्नाटे में
वो अपना घर- अपने लोग
अपना पुराना शहर
ना जाने कहाँ गुम हो गया है
तब गांव हमें अपनाता है ~ दिनेश सिंह सेंगर
वातावरण शहर का जीना, जब मुस्किल कर जाता है
चार दिवारी के अन्दर, रह रह कर दम घुट जाता है।
तब शीतल छाया बाला, बरगद यादों में आता है
“मेरे मन” तू देख जरा, ‘तब गांव हमें अपनाता है।।
जहां पवन झूलों पर आकर, गीत प्रेम के गाता है
धरती अम्बर और समन्दर, बाला सुख दे जाता है।
जहां प्रकृति का मनमोहक, वह वातावरण लुभाता है
“मेरे मन” तू देख जरा, ‘तब गांव हमें अपनाता है’।।
जिसने अपने खून पसीने, से धरती को सींचा है
जिसके कारण भारत का, मस्तक पर्वत से ऊंचा है।
जो संकट में धीरज धारण, कर हमको समझाता है
“मेरे मन” तू देख जरा, ‘तब गांव हमें अपनाता है’।।
जिसे छोड़ कर मैं शहरों की, ओर दौड़ कर आया था
चकाचौंध में डूब शहर की, अपना गांव भुलाया था।
रह रह कर देखो फिर मुझको, बचपन आज बुलाता है
“मेरे मन” तू देख जरा, ‘तब गांव हमें अपनाता है’।।
मां की ममता भूल गया मैं, और पिता का भूला प्यार
गांवों की गलियों को भूला, और लंगोटी बाला यार।
लेकिन जब भी सुबह का भूला, लौट शाम को आता है
“मेरे मन” तू देख जरा, ‘तब गांव हमें अपनाता है’।।
दूरियॉं कम होंगी ~ प्रदीप बिष्ट
फिर से ये दूरीयॉं कम होंगी,
कुछ देर घर में ठहर जा,
फिर से ये गाड़ियों के थमे पहिये चलेगें,
कुछ देर घर में ठहर जा,
फिर से विद्यालय बच्चों से खिल उठेंगे,
कुछ देर घर में ठहर जा,
फिर से सूनी सड़के रौशन होंगी,
कुछ देर घर में ठहर जा,
फिर से मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजाघर भक्तों की प्रार्थनाओं से गूंज उठेंगे,
कुछ देर घर में ठहर जा,
फिर से सारे त्यौहार साथ मिलकर मनाएंगे,
कुछ देर घर में ठहर जा,
फिर से आजाद होकर उड़ सकेंगे,
कुछ देर घर में ठहर जा,
फिर से मिलकर एक नया दौर लिखेंगे,
कुछ देर घर में ठहर जा,
घर में ठहर जा.
इंसान क्या है अब दिखने लगा है ~ आशीष नेगी
धुंआ बीस-बीस में उठने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है,
रोना रोता फिर रहा है जग में एक बीमारी का,
मानसिक जो बीमारी है उसका असर होने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
एक नहीं हजारों- लाखों ऐब है हम में,
जिंदगी को नहीं बस पत्थर को पूजा है हम ने,
दुआओं की एक लहर चल रही है,
बद्दुआओं का सिलसिला भी चलने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
तृष्णा क्या है तृप्ति क्या है,
भेद से अनजान सब इंसान है,
प्रेम क्या है करुणा क्या है,
गुमनाम भाव हुए सब इंसान है,
सन्नाटों की आहट का अंदाजा लगने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
मिट्टी से लेकर आकाश तक,
अवसाद से उपहास तक,
निज के हृदय से, सम्मुख रखे एक प्राण तक,
जज्बातों की तरंग से लेकर ज्ञान तक,
लोभ हर बात का जो रखने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
व्यापार है यहां जिस्मों का,
रूह भी अब निर्लज्ज है,
दैवीय बन ने के लिए जो करता सुकृत्य है,
मूक हुए है सब स्तब्ध हैं, निशब्द है,
कर्म के कांडों का भांडा अब फूटने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
खेल हुआ है इंसान को,
बर्बरता से लेता है ये जान को,
कपट कपाट पे लिख,
चोट पहुचाता है मानवता के मान को,
खैर सुना है कोई रहते थे वन में,
जानवर तो अब घर बना के रहने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
खूबसूरत था इसलिए जल गया,
जमीन का हिस्सा था इसलिए हिल गया,
पानी मे था अर्श के तले अब दब गया,
बारम्बार इन्ही बातों का कड़वा बना बखान है,
कोरोना हो या हो कोई मुसीबत,
तुम्हारे ही कर्मो का परिणाम है,
देखो जिंदगी का तमाशा अब सजने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
कभी हवा की मार झेलते,
कभी किट बन हैं खेलते,
हलाहल को मुँह में रख,
कटाक्ष कर है बोलते,
उग्रवाद की सीमा का ना निकट मिलने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
धूर्त बनी इस प्रजाति का ये अभिमान है,
सुना है इस भृमित रचना के रचयिता भगवान है,
द्वेष की अग्नि में पल- पल जलती,
दुःख और दुखद है कि हम इंसान है,
इंसानियत का नँगा नाच अब होने लगा है,
इंसान क्या है अब दिखने लगा है।।
दहशत ~ करन त्रिपाठी
डर के साये में सिसक रहे है,
कोरोंना की जारी है वहशत।
चारों तरफ़ कोहराम मचा है,
सारी दुनिया में छाई दहशत।।
किसानो को डर टिड्डी का,
माँ को चूल्हे की है चिन्ता।
रोजगार सब शून्य हो गए,
बापू कों है पैसों की चिंता।।
सब बच्चों के स्कूल बंद है,
युगलों को बाहर की हसरत।
चारों तरफ़ कोहराम मचा है,
सारी दुनिया में छाई दहशत।।
पथिक,बनिज हैं घर लौटे,
रास्तों में मातम है पसरा।
नहीं विकल्प मिला कोई,
शोक का आलम है गहरा।।
अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी,
अब अर्थशास्त्री भी सहमत।
चारों तरफ़ कोहराम मचा है,
सारी दुनिया में छाई दहशत।।
असमय काल ने छीना जो
उनकी करुण कहानी क्या।
घाव कसकते है बहनो के
राखी की बात बतानी क्या।।
टीस भरी हर दिल में अबतो,
है नहीं किसी पर ये तोहमत।
चारों तरफ़ कोहराम मचा है,
सारी दुनिया में छाई दहशत।।
सरकारी धन खूब लुटा है,
ना मिली गरीबों को रोटी।
कुछ बेहाल भूख से मरते,
ये बात लगे सबको छोटी।।
प्रभु आप बचाओ ये सृष्टि,
अब नहीं उठाए कोई जहमत।
चारों तरफ़ कोहराम मचा है,
सारी दुनिया में छाई दहशत।।
सावधानी अब और बढ़ी ~ चुन्नी लाल ठाकुर
सावधानी अब और बढ़ी
अब आ गई है और भी धीरज और धैर्य की घड़ी,
कोरोना लॉकडॉन अब धीरे- धीरे खुल रहा
मन हम सबका भी खुशी से झूल रहा।
पाबंदियों से मिल रही अब सबको राहत
और होनी है स्कूलों की छुट्टियां भी आहत,
कुछ स्कूल जाने को है उत्सुक
कुछ को थी अभी घर पर रहने की चाहत।
बाज़ारों में भी होनी है अब भीड़ और चहल
सभी को होगी बाज़ारों में जाने की पहल,
पर याद रहे कोरोना अभी खत्म नही हुआ
मत खेलना तुम अपनी सुरक्षा और जिम्मेदारी से जुआ।
कोरोना संबंधित जानकारी और सावधानी का रखना ख्याल
ताकि न आ पाए कोरोना की बढ़त का भूचाल,
बार-बार हाथ धोना, मास्क पहनना
और दो गज की दूरी को रखना याद
तभी आबाद होगा अपना पहले सा खुशहाल समाज।
मेरा नमन ~ आलोक रंजन
हे कोरोना वारियर्स आपको मेरा नमन,
आप के वजह से है इस मुल्क में अमन।
कोरोना के खिलाफ हम सब की बड़ी जंग है,
घबराइएगा मत हम आपके संग है।
आशा है एक दिन आएगा उमंग,
हम भी खेलेंगे खुशियों के रंग।
इस महामारी में बहुत परेशानी मिली,
शोक है उन सब पर जिन्हें मौत की कहानी मिली।
आपने अपने जान की लगा दी बाजी,
तो हम भी घर पर पढ़ने को राजी।
शहीदों को हमारा शहादत है,
मजदूर- छात्रों का अपने राज्य में स्वागत है।
आइए मिलकर अलख जगाए,
देश से मिलकर कोरोना भगाएं।
आप से ही खिल रहा चमन,
हे कोरोना वारियर्स आपको मेरा नमन।।
मधुशाला और अर्थव्यवस्था ~ बजरंगी लाल
कोरोना ने ऐसा ढ़ाला,
लगा दिया चहुँ ओर है ताला,
ध्वस्त हुयी सब अर्थव्यवस्था,
पूर्ण करेगी मधुशाला।
बन्दी ने ऐसा कर डाला,
ऊबा घर में रहने वाला,
सत्ताधीश भी खूब है सोंचा,
क्यों न खुली रहै मधुशाला।
कोरोना का बड़ा बोलबाला,
अर्थव्यवस्था भी खा डाला,
तब पैसों की जुगत लगायी,
क्यों न खुली रहै मधुशाला।
बन्द हुए पूजा आलय सब,
डर बैठे हैं पुजारी सब,
मन्दिर- मस्जिद काम ना आए,
खुले रहे हैं रुग्णालय सब।
मुल्ला जी भी छुप बैठे मस्जिद में लटका ताला,
गम में ऐसे डूबे जैसे पड़ा हुआ मुँह पर पाला,
आकर घूंँट लगा लो तुम भी,
खुली हुयी है मधुशाला।
शिक्षा- दीक्षा भी बन्द रहेगी,
बन्द रहेंगी. पाठशाला,
पीने वालों गम को पीयो,
खुली हुयी है मधुशाला।
डॉक्टर हों या स्वास्थ्य कर्मियों,
टेन्शन ना तुम लेना मोल,
पुलिस सिपाही स्वच्छ कर्मियों,
दो घूँट लगाना बोतल खोल।
राय मेरी गर मानों तो,
सब घर में पहुँचा दो हाला,
कोई ना घर से निकलेगा,
पी-पी कर के मधुशाला।
पीकर मदिरा गर निकलेगा,
व्यक्ति कोई हो मतवाला,
सच कहता हूँ काँप उठेगा,
कोरोना उपजाने वाला।
हे! माननीय मैं कहता हूँ,
छोटा मुँह बात बड़ी सी बोल,
स्वर्णकार की खुलें दुकानें,
पीने हेतु, जहाँ बिके हैं गहनें मोल।
मैंने सुना है क्वारंटीन से,
बहु व्यक्ति मिला भागने वाला,
विनम्र निवेदन करता है सब कोई पीने वाला,
क्यों न सभी क्वारंटीन में खुलवा देते मधुशाला।
कोरोना का कहर ~ दिलखुश मीना
आशियाने की झलक नसीब नही,
इस तरह बदली है करवट वक्त ने,
किया है बेघर अपने ही वारिसों को,
ये ऐसा कहर बरपाया है कोरोना ने।
कपल- मिलन नही होता है दीवानों का,
आलिंगन हुए लंबा अरसा बीत गया,
कौंध रहा पढ़ते वक्त ताकना- झांकना,
ये ऐसा कहर बरपाया है कोरोना ने।
हो गई है नायिका विकल इन दिनों,
दिवस उसका रुदन में रहा निकल,
रात्रि उसकी चैटिंग में रही निकल,
ये ऐसा कहर बरपाया है कोरोना ने।
कोंपलें फूटेगी आशियाने में कलियों की,
उन पर पुष्प भी पुष्पित-पल्लवित होंगे,
भौंरे भी गुनगुनायेंगे, लवर्स-मिलन भी होंगे।
ये ऐसा कहर बरपाया है कोरोना ने।
आइए रूक जाए ~ आलोक रंजन
आइए रूक जाए घर में
गजब का कोहराम मचा हुआ,
हे भगवान कौन सा कलह रचा हुआ?
साबुन की टिकिया है सबके कर में,
क्या हुआ लोगों को जो टिक नहीं पा रहे शहर में?
आइए रूक जाए घर में।।
डाक्टरों ने आवाज लगाई है,
मित्रों घर में ही रहने में भलाई है।
विद्यालय, बाजार सब बंद हूए,
कोई नहीं जा रहा ईश्वर के दर में।
आइए रुक जाए घर में।।
आज पाखंडियों का धागा कच्चा रहा,
यथार्थ ईश्वर डाक्टर डटा रहा।
आइए एकता का आवाज लगाए एक सूर में,
दरकार में भी रहे दूर में।
आइए रूक जाए घर में।।
कुछ लोगों ने ना मानकर अपना गलत पहचान दिया,
लेकिन वो भी आ गए इसके कहर में।
आइए रूक जाए घर में।।
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