1. मत पूछो ~ पुजा कुमारी साह
मत पूछो मैं कैसी हुं, क्या कहुं मैं कैसी हूँ।।
आँखों से निकल कर, गालो से फिसलकर
जब आंसू की वो बूंद जमी पर गिर रही थी।
तब आपने नही पूछा कैसी हूं मैं।
आपसे जुड़ी मेरी सारी उम्मीदे तड़प-तड़प कर मर रही थी।
एक-एक पल आपके दीदार को तड़प रही थी
तब आपने नहीं पूछा कैसी हुं मैं।
मत पूछो मैं कैसी हुं, क्या कहुं मैं कैसी हूँ।
ख्वाब आपका ही उमड़ रहा था,
मेरी राते जितनी दफ़ा करवटे बदल रही थी।
मेरे मन के पन्ने पलट-पलट के देख रही थी,
हर लफ्ज़ में आपकी ही बाते चल रही थी।
मत पूछो मैं कैसी हुं, क्या कहुं मैं कैसी हूं
दूरियां बढ़ी फिर बढ़ी मजबूरियां, बातें धीरे-धीरे बिगड़ रही थी।
“हाँ” ये भी सच है कि मैं सब सच जानते हुए भी, हर पल मर रही थी।
मत पूछो मैं कैसी हुं, क्या कहुं मैं कैसी हूं।
रिश्तों की बुनियादे इतनी भी कच्ची नहीं थी,
फिर क्यों उम्मीदो की फसलें उजर रही थी।
मेरी चंचलता का मतलब सभी ने कुछ और ही लगाया था।
इंतजार में थीं एक सुकून भरी जिंदगी का कहाँ-कहाँ न ढूंढ़ा आपको
कभी हवा में, तो कभी किसी खुशबू में कभी लोगो की भीड़ में,
तो कभी किसी संगीत में तब आपने नहीं पूछा मैं कैसी हुं।
मत पूछो मैं कैसी हुं क्या कहूं मैं कैसी हूं।
कभी किसी की चाहत में तो, कभी किसी की आहट में
काश एहसासो के भी जुबा होते तो वो शब्दों के ताने-बाने से बोल पाते,
न दिखते थे पर मौजूदगी का एहसास हर पल है।
मत पूछो मैं कैसी हुं क्या कहूं मैं कैसी हूं।
ये भी है एक मृग मारिच कि तरह
जो कस्तूरी मृग की भांति ता उम्र भटकती रहेगी।
अब तो मत पूछो मैं कैसी हूं, क्या कहूं मैं कैसी हूँ।