जादू की छड़ी जब वक्त की
घूमती है, तो
सब कुछ ऐसे पलट जाता है,
जैसे-
कदम हैं रुके से
और धरती चल रही है,
आसमां है झुका सा
और हम उठ रहे हैं,
सूरज है शीतल सा
और चांद तप रहा है,
पशु-पक्षी हैं उन्मुक्त से
और हम कैद हो रहे हैं।
परंतु यह क्या?
वक्त ने अपनी जादूई छड़ी घुमाई है।
तभी तो
हम हैं रुके हुए और
वक्त बीत रहा है,
एक-इक्कीस-उन्नीस करके
महीना और साल बीत रहा है।
कैद था जो पिंजरे में वर्षों से
खुली हवा में सांस ले रहा है,
आज़ाद था जो सदियों से
आज पिंजरे का मर्म समझ रहा है।
यही तो है वक्त की मार,
जो किसी वक्त हमें चुपचाप सहती है
और फिर एक वक्त आता है
जब यह हम पर भारी पड़ती है।~ संध्या साव