भारत के श्रमवीरों की मैं गौरव गाथा लिखता हूँ।
जो रीढ़ है देश की उनकी पीड़ा लिखता हूँ।

जो हर मौसम में पीड़ा सहकर हँसकर भी जी लेते हैं।
जो कभी न मुँह से कुछ मांगते घर पैदल ही चल देते हैं।।
ऐसे मजदूरों की मैं गौरव गाथा लिखता हूँ।
जो रीढ़ है देश की उनकी पीड़ा लिखता हूँ।

भूख प्यास को वो सह लेते बच्चों के संग जीते हैं।
पांवों के छालों का दर्द नहीं किसी से कहते हैं।।
ऐसे श्रमवीर की मैं गौरव गाथा लिखता हूँ।
जो रीढ़ है देश की उनकी पीड़ा लिखता हूँ।

तालाबंदी में भी मिलों दूर चल जाते हैं।
चिलचिलाती धूप में पीछे मुड़कर न आते हैं।
ऐसे मजदूरों की मैं गौरव गाथा लिखता हूँ।
जो रीढ़ है देश की उनकी पीड़ा लिखता हूँ।

दो जून की रोटी की मजबूरी क्या क्या करवाती है।
नये पुराने शहरों की ये प्रतिदिन सैर कराती है।
ऐसे मजदूरों की मैं गौरव गाथा लिखता हूँ।
जो रीढ़ है देश की उनकी पीड़ा लिखता हूँ।

~ डॉ. राजेश कुमार शर्मा पुरोहित


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