बेरोजगारी, गरीबी और मजबूरी ने मिलकर एक व्यक्ति इतना तंग किया,
एक दिन वह बोरिया विस्तर लादकर घर छोड़कर चल दिया।
सोचा! क्या करुँगा, कहाँ जाऊँगा मन मे बडा़ उदास था,
कुछ भी करूँगा पर घर लोटकर नहीं जाऊँगा ये उसे विश्वास था।
पहुँचा कहीं, फिर उसे दो रोटी का गुजारा मिल गया,
जैसे डूबते को तिनके का सहारा मिल गया।
टुटे हुए अरमानो मे थोडी़ सी उम्मीद जगी थी,
आँखों मे उसके दिखने लगी थोडी़ सी नमी थी।
अचानक! महामारी का बादल गड़गडा़या,
देखकर वो मंजर वह बडा़ घबराया।
आसपास दिखने लगा जब महामारी का साया,
फिर डरकर उसने पलायन करने का मन बनाया।
देखते ही देखते महामारी विश्वभर मे छाने लगी,
अब उसे घर पहुँचने की चिंता सताने लगी।
अगले ही दिन पूरे देश मे कर्फ्यू लग गया,
वह बेचारा अकेला वहीं फंस गया।
कर्फ्यू लगाना देश मे शासन की मजबूरी थी,
घर पे पहुँचना अब तो उसकी इच्छा बहुत जरूरी थी।
मजबूरियों ने उसे गृहत्याग को बिवस किया,
मजबूरियों ने ही उसे घरवास को सजग किया।
~ देवेन्द्र पाल