माँ
अब तो आदत सी हो गई है माँ!
बिन तुम्हारे रहने की
जब याद तुम्हारी आती है,
तुम्हारी तस्वीरें देखा करती हूँ माँ!
जब भी करवट बदलती हूँ
याद तुम्हारी हीं आती है माँ!
जिस हाथ को थाम तुमने,
मुझे चलना सिखलाया था
वह हाथ अब भी थामें रखना माँ!
कभी डांट कर, कभी प्यार से
हर मुश्किलों से लड़ना तुमने हीं सिखलाया है माँ!
आंखें जब भी खुलती थी तेरी गोद का सहारा होता था माँ!
जिंदगी की हर उलझन से सुलझना तुम से हीं सिखा है माँ!
बड़ों के सम्मान में झुकना और गिर कर उठना
तुमसे हीं यह बड़प्पन पाया है माँ!
ख्वाब दिखाकर उड़ना भी तो तुमने ही सिखलाया है माँ!
क्यों विदा होते हीं बेटियाँ पराई-सी हो जाती है माँ!
तुमसे मिलने को अब तरस हम जाते हैं
जब याद तुम्हारी आती है
बस तस्वीर देख कर रह जाते हैं।
मेरी जिंदगी तो तेरी कर्जदार है माँ!
दिल तो मेरा है पर धड़कता तेरे लिए ही है माँ।
माँ
अस्तित्व का आधार भी तू है,
सृजन का आधार भी तू है,
सृष्टि की संचालक भी तू है,
धर्म का आधार भी तू है,
माँ तरुवर सी छाव भी है,
माँ त्याग की मूर्ति भी है,
हर घर का सम्मान भी तू है,
संगीत का सार भी तू है,
सुर की एक मिसाल भी तू है,
माँ एक खिलखिलाता बचपन भी तू है,
धूप जैसे प्रचंड भी तू है,
अविचल, अनवरत गंगा की धार सी है,
कोमल पुष्प सा स्पर्श भी तू है,
हर जख्म का एक मरहम भी तू है,
पूरा एक संसार भी तू है,
हर भावों का मिलन है तुझसे,
माँ तुम सिर्फ माँ ही नही,
हर भावों की पूर्णता है तू,
असाध्य पीड़ा में कोमल स्पर्श भी तू है,
माँ पहली शिक्षक भी तू है,
जीवन का पहला सुर भी तू है,
माँ चारों धाम भी तू है,
सारी पीड़ा खुद में रखकर
चेहरे की मुस्कान है तू,
माँ पूजा का आधार भी है तू है,
बिना परख का प्यार भी तू है,
बिना चाह के निस्वार्थ प्रेम भी तू है,
माँ तू जीवन का आधार भी है,
प्रेरणा भी है और आत्मबल भी है,
सबल भी है तू कोमल भी है तू,
हर भावों का सार भी तू है,
माँ कुछ भी कह लू मैं,
मैं निशब्द हूं और तू शब्दो से परे है माँ।
माँ
कैसे गुज़ारे हैं दिन अकेले उस आँचल की छांव से
छाले पड़े है पैरों पर जब से निकले हैं कमाने गांव से।
पाला- पोसा और एक नया मुझे इंसान बनाया
यूँ ही नहीं है माँ-बाप को भगवान बतलाया।
यादों में ही रखा है अब माँ की तस्वीर को
वक़्त समय से पहले क्यों छीन लेता है “माँ-बाप” को तक़दीर से।
दुःख होता है और छुपाना भी आता है
हमेशा खुद को हँसाना भी पड़ता है।
सबसे से हटकर रहते हैं कभी कभी ये भी दिखाना पड़ता है।
रोशन होता था “माँ” से जो घर कभी
अब! खुद ही वो दिया जलाना पड़ता है।
लौट आ सकते तो लौट आना “माँ”
फिर से खाना अपने हाथों से मुझे खिलाना माँ।
बहुत है दुनिया में बिन माँ -बाप के
पर माँ-बाप फिर मिले सबको आप से।
कभी हँसता हूँ तो कभी खुद को रुलाता हूँ
नींद में भी रोज़ “माँ ” को ही बुलाता हूँ।
लौट आएगा कभी अपनी भी खुशियों का दौर
यूँ ही किसी ख़ुशी से नहीं छोड़ा है “माँ” अपना घ्हौर।
खेम नाम दिया आपने माँ और आज “नादान कलम” हो गया
ना जाने दर्द को लिखते-लिखते कब जवान हो गया।
था जो घर आपसे खुशियों का माँ
वो अब मकान हो गया।
माँ की यादों को पिरोने लगा हूँ
जागते रहना अल्फ़ाज़ों “खेम” सोने लगा हूँ।
माँ
ममता की है वो मूरत
माँ होती ही है बहुत खूबसूरत
तन को ओढ़े वही पुरानी साड़ी
कहाँ कोरा कहाँ गया पल्लू
कुछ का नहीं ध्यान
फिर भी सजी रहती है
चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान
ना कोई श्रृंगार ना ही कोई सजावट
माँ जैसी भी रहे
इसकी सादगी में होती नहीं कोई मिलावट
पवित्र हो जाती है वो आत्मा
जिस पर सदा रहती है इसकी ममता
मिलता है सबसे ज्यादा दुलार
इसे ही तो कहते है माँ का प्यार
मां
मां पर कोई कविता लिखना,
वेईमानी होती है।
“मां” तो “मां” ही होती है,
“मां” तो “मां” ही होती है।।
मां से बढकर ना बसुंधरा,
गम्भीर पयोधि नही कोई।
ना ह्रदय विशाल मां के जैसा,
आकाश अनंत नही कोई।
मां की तुलना किससे कर दी,
यह वेईमानी होती है।
मां तो मां ही होती है.
मां तो मां ही होती है।।
मां के आंचल की शीतलता,
सूरज को मध्म कर देती।
मां के हाथों की कोमलता,
फूलों और मक्खन के जैसी।
अरे मां की तुलना किससे कर दी,
यह वेईमानी होती है।
मां तो मां ही होती है,
मां तो मां ही होती है।।
माँ
माँ तुम ममता की मूरत हो,
दुनियाँ की सबसे सुंदर सूरत हो।
माँ तुम बिन जग सुना लगता है,
माँ तुम मेरी पहली जरूरत हो।।
माँ भगवान का रूप हो तुम,
प्यारी वसुंधरा का स्वरूप हो तुम,
जिसका दामन ममता से खाली ना हुआ।
वही यशोदा का रूप हो तुम।।
माँ तुमसे ही मेरा मान है,
इस धरा पर मेरा सम्मान है।
तेरा ही रक्त मुझमें है बहता,
तुमसे ही इस जग में अभिमान है।।
माँ मुझे इतना कौन दुलारेगा,
इतना प्यार से कौन पुकारेगा।
आज अपने आँचल में समेट लेती हो,
तेरे बाद मुझे कौन सम्हालेगा।।
तुमसे अलग होकर हौसला टूटने लगता है,
नजर ना आती हो तो जान छूटने लगता है।
माँ मेरी इस देह का प्राण हो तुम,
साथ ना रहो तो दम घुटने लगता है।।
माँ क्या मेरा एक काम करोगी,
जीवन भर क्या मेरे साथ रहोगी।
माँ मुझसे वादा करो ना आज,
मुझे छोड़ कर कभी ना जाओगी।।
मुझे छोड़ कर कभी ना जाओगी।।
माँ
आँचल बीच समा लेती हो
विधा-सुगत सवैया
दुग्ध पिलाकर अपने उर का, आँचल बीच समा लेती हो।
अपने हाथों से सहलाकर, मन की थकन मिटा देती हो।
बोध कराती ऊंच नीच का, कर ममत्व की छाँव निराली।
प्रथम शिक्षिका मात तुम्ही हो, संस्कार सिखलाने वाली।
अपने सुत के हित हितार्थ माँ, तुम सर्वस्व लुटा देती हो।
अपने हाथों से सहलाकर, मन की थकन मिटा देती हो।
मानव हो या पशु-पक्षी भी, जननी तो जननी होती है।
स्वार्थ, कपट छल दम्भ से परे, निश्छल माँ ममता होती है।
पशु, जीव नर और नारायण, माता क्षुधा मिटा देती हो।
अपने हाथों से सहलाकर, मन की थकन मिटा देती हो।
ऋणी हुआ मैं माता ऋण से, श्वाश श्वाश है कर्ज तुम्हारा।
नहीं जुबां से कुछ कह पाऊं, मैं बालक नादान तुम्हारा।
विकल देख माँ अपने सुत को, निज के दु:ख भुला देती हो।
अपने हाथों से सहलाकर, मन की थकन मिटा देती हो।
माँ
योगी माँ या माँ में योग
गध काव्य
जब भी मां को देखा एक योगी की भाँति देखा।
उसका सुरज निकलने से पहले भोर में उठ जाना।
घंटो आंगन में झाड़ू फेरना, परदो में पैबंद लगाना।
करीने से समानों को सजाना, सुबह का नाश्ता हो।
या दोपहर का भोजन, समय पर उसको पूरा करना,
योग नही तो क्या है? अपने बच्चो के बेतरतीब
जीवन को समेटना, पढ़ाना, लिखाना, एवम् उन्हें
प्रेम से संजोना योग नही तो क्या है?
स्वेटर के फन्दॅ में घंटो अपनी आंखो पे
चश्मा चढ़ाकर, सुन्दर बेलबूटों को सजाना।
तन्मय होकर उसमें फूलों के कसीदे काढ़ना।
योग नही तो क्या है।
सुबह से शाम तक एक योगी की तरह
सारे कामों का सुचारू रूप से क्रियान्वयन
योग नही तो क्या है?
ये सब योग ही तो है,
जिसमें मां एक तपस्विनी की भाँति
योग करती रहती है,
अपने बच्चो से निस्वार्थ प्रेम
की परिपाटी एक माँ ही चला सकती है।
अपना सबकुछ निछावर करके,
कुछ भी न चाहना योग नही तो क्या है।
माँ
इक औरत जिसने सीने से लगाया था मुझे,
अपने हाथों से निवाला खिलाया था मुझे,
आज तक करता हूं याद उस देवी को,
जिसने नौ महीने कोख में सुलाया था मुझे,
उसकी याद में पल पल मरता हूं मैं।
उस माँ को बहुत याद करता हूं मैं।।
कहती थी ना छोड़कर जाया कर मुझे,
यूं ना दिन भर सताया कर मुझे,
सूना लगता है आंगन जब तू जाता है,
पास आकर गले से लगाया कर मुझे,
जब जब दूर जाता हूं, तरसता हूं मैं।
उस माँ को बहुत याद करता हूं मैं।।
जो मुझे अपने संस्कार दे गई,
दुनिया में जीने के आसार दे गई,
अब किसको माँ कहकर बुलाऊं मैं,
छीनकर माँ कहने का अधिकार ले गई,
जिसके बिन बादलों सा बरसता हूं मैं।
उस माँ को बहुत याद करता हूं मैं।।
माँ
होता कुछ भी नहीं मैं,
अगर तू साथ ना होती,
गिर के संभल ना पाता,
गर तू मेरे पास ना होती।
आसमान में सुराख़ कर देती,
ख्वाहिश जो मेरी ये भी होती,
खुशियों में मेरी तू,
अपने गम भुला ही देती,
मेरे कदमों की आहट को,
दुर से ही पहचान लेती।
लड़कपन की गलतियों को,
यूँ ही तू भुला ही देती,
नीदों में भी अपनी तु,
मेरे सपने सजा के रखती।
होता कुछ भी नहीं मैं,
गर तू मेरी माँ ना होती।
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