शहंशाह गुप्ता (विराट) ने माँ के लिए अपने विचार इस कविता में लिखें हैं। माँ की बातें बताने में शब्द कम ही पड़ जाते हैं, हमारे जीवन में उसका अपार योगदान होता है। उसकी पीड़ा को समझना हमारा कर्तव्य होना चाहिए।
यथार्त के धरातल पर
जब ख़्वाबो का परिंदा गिरता है’
तो पता नही कौन सा ईश्वर
अपने शक्तियो.के प्रदर्शन का
दंभ अपने सारे भक्ति की
रसमलाई बना
हमारे सुखों के सपनों में,
कृमि बना कर घुसेड़ देता है,
जो धीरे धीरे मन के बल का
अपक्षय करने लगती हैं।
जैसे मेरी मां
जो कभी सुख की
बस कल्पना ही कर पाई है,
ईश्वर के इस स्वार्थी स्वभाव को झेलने,
किसी रुग्णालय में लेटी सी
अपनी कहानी को रिवाइज करती है,
ये सोचते कि
सुख का दिन ही कब हुआ था,
कब कोई चिड़िया चहचहाई,
कब ओस की बूंदे
घासों को सहलाई,
कब बीती ये उमर
हम चार खंभे गाड़ते,
मेरी मां लेटे लेटे सोचती है,
जिसका कोई साथ नहीं दे पाता
ऐसी सोच में डूबी मेरी मां
फिर भी ईश्वर का नाम लेती है,
ये सोचते की दुख के छांव से भली
कभी तो सुख की धूप आएगी,
और शाम के आनंद भरे वातावरण में
उसके बेटे बहू पोते और पोती
उसके सामने बैठे हंस रहे होंगे,
खिलखिला रहे होंगे।
चाय की चुस्कियों में डूबी ये शाम
उसके ईश्वर से कि गई
प्रार्थना का उत्तर बनेगी,
और वो पुनः अपने
सुखों कि किताब में डूबने का
प्रयत्न करती तो है
पर उदर की होती वेदना
उसके चेहरे की मुस्कुराहट छीन लेती है,
और फिर वो कृमि
उसको सुखों का अपक्षय करना शुरू कर देते हैं।~ शहंशाह गुप्ता (विराट)
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